जीवन परिचय – सियारामशरण गुप्त हिंदी साहित्य के महान साहित्यकारों में अपना प्रमुख स्थान रखते हैं उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज की बुराइयों पर गहरी चोट की |
सियारामशरण गुप्त का जन्म सन् 1895 ई० में उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान में हुआ था| ये राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई हैं | घर पर ही इन्होंने संस्कृत , अंग्रेजी और बंगला जैसी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया | महात्मा गाँधी तथा विनोबा भावे के संपर्क में आने पर भी इनकी विचारधारा पर काफी प्रभाव पड़ा | इनके पुत्र तथा पत्नी का निधन असमय ही हो गया जिस कारण ये दुख , वेदना और करुणा के कवि बन गए | सियारामशरण गुप्त की भाषा अत्यंत सरल है | लंबी बीमारी के बाद सन् 1963 में इनका निधन हो गया |

रचनाएँ – इनकी प्रमुख रचनाए हैं – ‘ आर्द्र ‘ , मौर्य विजय , ‘ नकुल ‘ ‘ दूर्वादल ‘ , ‘ पाथेय ‘ , ‘ मृण्मयी ‘ , ‘ बापू ‘ , ‘ दैनिक’ ,’ विषाद ‘ , ‘ उन्मुक्त ‘ ,’ आत्मोत्सर्ग ‘ आदि |

उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचंड हो
फैल रही थी इधर-उधर।
क्षीण-कंठ मृतवत्साओं का
करुण रुदन दुर्दांत नितांत,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशांत।

 व्याख्या – कवि ने एक फूल की चाह कविता में उस वक्त फैली हुई महामारी के बारे में बताया है। इस महामारी की चपेट में ना जाने कितने मासूम बच्चे आ चुके थे। जिन माताओं ने अपने बच्चों को इस महामारी के कारण खोया था, उनके आँसू रुक ही नहीं रहे थे। रोते-रोते उनकी आवाज़ कमजोर पड़ चुकी थी, पर उस कमजोर पड़ चुके करुणा से भरे स्वर में भी अपार अशांति सुनाई दे रही थी।

बहुत रोकता था सुखिया को,
” न जा खेलने को बाहर ”
नहीं खेलना रुकता उसका,
नहीं ठहरती वह पल-भर |
मेरा हृदय काँप उठता था ,
बाहर गई निहार उसे ,
यही मनाता कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे
|

व्याख्या – सुखिया का पिता अपनी बेटी सुखिया को बाहर जाने से बहुत रोकता था क्योंकि बाहर महामारी फैली थी और उसे डर था कि कहीं उसकी बेटी उस महामारी का शिकार न हो जाए | परंतु उसकी बेटी का खेलना न रुकता वह थोड़ी देर भी घर पर न रूकती और बाहर खेलने चली जाती परंतु पिता का हृदय काँप उठता था जब भी वह उसे बाहर खेलने जाते देखता और उसका हृदय यही सोचता कि किसी भी तरह से वह महामारी की चपेट से अपनी बेटी को बचा ले |

भीतर जो डर रहा छुपाए,
हाय ! वही बाहर आया
एक दिवस सुखिया के तन को
ताप – तप्त मैंने पाया |
ज्वर में विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर-से -डर,
मुझको देवी के प्रसाद का.
एक फूल ही दो लाकर |

व्याख्या – कवि कहते हैं कि जो डर उस पिता के हृदय में छिपा था वही एक दिन बाहर आ गया | उसने एक दिन सुखिया के शरीर को बुखार से तपता पाया |बुखार के कारण सुखिया व्याकुल थी और उसने अपने पिता से न जाने किस डर के कारण कहा कि मुझे देवी के प्रसाद का एक फूल लाकर दे दो |वह बुखार से तड़प रही थी और उसने अपने पिता को प्रसाद के रूप में एक फूल लाकर देने का आग्रह किया |

क्रमश: कंठ क्षीण आया ,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव – नव उपाय का,
चिंता में मैं मन मारे |
जान सका न , प्रभात सजग से,
हुई अलस कब दोपहरी ,
स्वर्ण घनो मे कब रवि डूबा,
कब लौटे संध्या गहरी |

व्याख्या – कवि कहते हैं उसकी बेटी के तीव्र ज्वर( बुखार) होने के कारण उसका स्वर क्षीण हो गया तथा शरीर के अंग भी ढीले अथवा कमजोर पड़ गए थे और पिता बैठा नए-नए उपाय सोच रहा था कि किस प्रकार ज्वर का उपचार किया जाए और चिंता में वह मन को मार कर बैठा था उसे चिंता में पता ही नहीं चला कि कब सूर्योदय हुआ, हलचल से भरी सुबह हुई, कब आलस्य से भरी दोपहर हो गई तथा कब घनी संध्या हो गई तथा कब सूर्य सुनहरे रंग के बादलों में छिप गया |

सभी और दिखलाई दी बस ,
अंधकार की ही छाया,
छोटी -सी बच्ची को ग्रसने ,
कितना बड़ा तिमिर आया |
ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते – से अंगारों से,
झुलसी – सी जाती थी आँखें,
जगमग जगते तारों से|

व्याख्या – सुखिया ज्वर से पीड़ित थी |इसलिए उसके पिता को चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखाई दिया अर्थात् उसे चारों और निराशा , पीड़ा एवं चिंता दिखाई दी| उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो जैसे छोटी सी बच्ची को ग्रसने के लिए अंधेरा आ गया हो अर्थात् जिस प्रकार अंधेरा प्रकाश को ग्रसित कर लेता है उसी प्रकार यह ज्वर रूपी अंधकार उसकी बेटी के जीवन को ग्रसित कर रहा हो | ऐसी स्थिति में उसे प्रतीत हो रहा था कि मानों जैसे विशाल आकाश में टिमटिमाते तारे अग्नि के अंगारे हो जिन्हें देखकर उसकी आँखे जल रही थी अर्थात निराशा से उसे सारी प्रकृति भी निराशामय प्रतीत हो रही थी |

देख रहा था – जैसे सुस्थिर हो ,
नहीं बैठती थी क्षण -भर
हाय वही चुपचाप पड़ी थी,
अटल शांति – सी धारण कर |
सुनना यही चाहता था मैं ,
उसे स्वयं ही उकसाकर ,
मुझको देवी के प्रसाद का ,
एक फूल ही दो लाकर |

व्याख्या – सुखिया का पिता बिना स्थिर हुए अपनी बीमार बेटी की तरफ देख रहा था और सोच रहा था कि जो कभी पल भर भी नहीं बैठती थी आज वह चुपचाप अटल शांति को धारण किए बैठी है अर्थात कुछ बोल नहीं रही | ज्वर के कारण उसकी स्थिति दयनीय बनी हुई है पिता स्वयं ही उसे उत्तेजित कर उसकी बोली सुनना चाहता था कि वह उठकर चाय इतना ही कह दे कि मुझे देवी के प्रसाद का एक फूल ही लाकर दे दो |

ऊँचे शैल शिखर के ऊपर ,
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल ,
स्वर्ण – कलश – सरसिज विहँसित थे ,
पाकर समुदित रवि – कर – जाल |
दीप – धूल से आच्छादित था,
मंदिर का आँगन सारा,
गूँज रही थी भीतर – बाहर,
मुखरित उत्सव की धारा|

मंदिर बहुत विशाल था जो एक पर्वत की चोटी पर स्थित था | मंदिर के शिखर पर कमल के फूल में स्थापित सोने के कलश पर जब सूर्य की किरणें पड़ती थी तब वह अत्यधिक सुशोभित होता था | मंदिर में धूप – दीप का वातावरण था जिस कारण सारा मंदिर सुगंधित था तथा मंदिर में इतनी चहल-पहल थी कि अंदर से बाहर तक ऐसा लग रहा था मानो कोई उत्सव हो |

भक्त – वृंद सब मधुर कंठ से
गाते थे सभक्ति मुद – मय
” पतित तारिणी , पाप – हरणी
माता तेरी जय – जय – जय !”‘
“पतित – तारिणी ,तेरी जय -जय ”
मेरे मुख से भी निकला ;
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जाने किस बल से ढिकला |

व्याख्या – मंदिर में एकत्रित भक्तों का समूह अत्यंत मधुर कंठ से भक्ति भाव के साथ प्रसन्न होकर गीतों का गान कर रहे थे | कि हे माँ ! तुम भक्तों को तारने वाली एवं पापों का हरण करने वाली हो , तुम्हारी जय हो सुखिया के पिता के मुख से भी यही निकला कि भक्तों को तारने वाली माता तुम्हारी जय हो और जाने किस बल ने उसे आगे धकेल दिया और वह बिना आगे बढ़े ही आगे हो गया |

मेरे दीप -फूल लेकर वे
अंबा को अर्पित करके,
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भर के |
भूल गया उनका लेना झट
परम लाभ – सा पाकर मैं |
सोचा बेटी को माँ के ये
पुण्य पुष्प दूँ जाकर मैं |

व्याख्या – उसने देवी माँ को दीपक और पुष्प अर्पित किए तभी पुजारी ने अंजलि भरकर उसे प्रसाद दिया | सुखिया का पिता अपनी बेटी के लिए देवी माँ के प्रसाद का एक फूल लाने मंदिर में पहुँचा था | जब पुजारी ने उसे प्रसाद दिया तो वह उससे परम लाभ – सा पाकर उसे एक बार तो लेना भूल ही गया उसने सोचा कि मैं जल्दी से जल्दी अपनी बेटी को देवी माँ के प्रसाद का पुष्प ला कर दूँ |

सिंह पौर तक भी आँगन से
नहीं पहुंचने मैं पाया
सहसा यह सुन पड़ा कि-“” कैसे
यह अछूत भीतर आया ?
पकड़ो देखो भाग न जाए ,
बना धूर्त है यह कैसा ,
साफ़ – स्वच्छ परिधान किए हैं
भले मनुष्यों के जैसा |

व्याख्या – कवि कहता है कि अभी सुखिया का पिता मंदिर के द्वार तक भी नहीं पहुँचा था कि अचानक किसी ने कहा कि यह तो अछूत है , यह मंदिर के अंदर कैसे आया , इसको पकड़ो यह कहीं भाग न जाए | यह बड़ा दुष्ट है , इसने भले मनुष्य की तरह साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए हैं |

पापी ने मंदिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी ,
कलुषित कर दी है मंदिर की ,
चिरकालिक शुचिता सारी |”
“ऐ ! क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी ?
किसी बात में हूँ मैं आगे ,
माता की महिमा के भी?


व्याख्या – चारों ओर से एक जैसे स्वर आने लगते हैं लोगों को आश्चर्य हुआ कि यह अछूत मंदिर में कैसे आ गया | इस पापी ने मंदिर में प्रवेश करके बहुत पुरानी पवित्रता को दूषित कर दिया है , तभी सुखिया के पिता ने कहा कि क्या मेरा पाप देवी मॉं की गरिमा से भी बड़ा है क्या मैं इस पाप के कारण माता की महिमा से भी कहीं आगे हूँ अर्थात् क्या अछूत हो ना इतना बड़ा पाप है कि वह माता की महिमा से भी बड़ा है |

माँ के भक्त हुए तुम कैसे ,
करके यह विचार खोटा ?
माँ के सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा ? ”’
कुछ न सुना भक्तों ने , झट से
मुझे घेरकर पकड़ लिया ,
मार-मारकर मुक्के घूँसे
धम से नीचे गिरा दिया |

व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया के पिता ने कहा कि इस प्रकार का बुरा विचार करके तुम माता के भक्त कैसे हो सकते हो अर्थात् माता के दरबार में तो कोई बड़ा – छोटा नहीं होता | ऐसे तो तुम माँ के सामने ही अपना गौरव छोटा कर रहे हो | परंतु भक्तों ने कुछ भी न सुना और झट से उसको घेर लिया और मुक्के – घूसे मार – मार कर उसे नीचे गिरा दिया |

मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा ! सब -का – सब ,
हाय अभागी बेटी ,तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब !
न्यायालय ले गए मुझे वे,
सात दिवस का दंड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!


व्याख्या नीचे गिरने पर उसके हाथों का सारा प्रसाद भी नीचे बिखर गया | सुखिया का पिता मन ही मन दुखी होकर सोचने लगा कि वह अपनी अभागी बेटी के लिए देवी माँ के प्रसाद का एक फूल भी उसे न दे सका | वह व्यथित होकर मन ही मन कहने लगा कि बेटी अब यह प्रसाद तुझ तक नहीं पहुँच सकेगा | मैंअंतिम बार तुझे अपनी गोद में भी नही ले सका और तेरी अंतिम इच्छा भी पूरी नहीं कर सका, तुझे देवी माँ के प्रसाद का एक फूल भी लाकर न दे सका |भीड़ के इस तरह सुखिया के पिता को पकड़ के मारने के कारण, उसके हाथों से प्रसाद भी गिर गया। जिसमें देवी माँ के चरणों में चढ़ा हुआ फूल

मैंने स्वीकृत किया दंड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता, क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविश्रांत बरसा करके भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।

व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया के पिता ने सिर झुकाकर चुपचाप उस दंड को स्वीकार कर लिया। उसके पास अपनी सफाई में कहने को कुछ नहीं था। इसलिए वह नहीं जानता था कि क्या कहना चाहिए। जेल के वे सात दिन सुखिया के पिता को ऐसे लगे थे जैसे कई सदियाँ बीत गईं हों। उसकी आँखें बिना रुके बरसने के बाद भी बिलकुल नहीं सूखी थीं।

दंड भोगकर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
भय जर्जर तनु पंजर को।
पहले की सी लेने मुझको
नहीं दौड़कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।

व्याख्या – कवि कहता है कि जब सुखिया का पिता जेल से छूटा तो उसके पैर उसके घर की ओर नहीं उठ रहे थे। उसे ऐसा लग रहा था जैसे डर से भरे हुए उसके शरीर को कोई धकेल कर उसके घर की ओर ले जा रहा था। जब वह घर पहुँचा तो हमेशा की तरह उसकी बेटी दौड़कर उससे मिलने नहीं आई। न ही वह उसे कहीं खेल में उलझी हुई दिखाई दी।

उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ,
मेरे परिचित बंधु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढ़ेरी।

व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया के पिता को घर पहुँचने पर जब सुखिया कहीं नहीं मिली तब उसे सुखिया की मौत का पता चला। वह अपनी बच्ची को देखने के लिए सीधा दौड़ता हुआ शमशान पहुँचा जहाँ उसके रिश्तेदारों ने पहले ही उसकी बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया था। अपनी बेटी की बुझी हुई चिता देखकर उसका कलेजा जल उठा। उसकी सुंदर फूल सी कोमल बच्ची अब राख के ढ़ेर में बदल चुकी थी।

अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा।

व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया का पिता सुखिया के लिए दुःख मनाता हुआ रोने लगा। उसे अफसोस हो रहा था कि वह अपनी बेटी को अंतिम बार गोदी में न ले सका। उसे इस बात का भी बहुत दुःख हो रहा था कि उसकी बेटी ने उससे केवल माता के मंदिर का एक फूल लाने को कहा था वह अपनी बेटी को वह देवी का प्रसाद भी न दे सका।