जीवन परिचय – कबीरदास हिंदी के संत काव्य धारा के निर्गुण शाखा के प्रमुख कवि हैं | इनके जन्म और मृत्यु के संबंध में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है | कबीरदास जी एक समाज सुधारक थे |
कबीर जी का जन्म सन् 1398 में काशी में माना जाता है| कबीर जी का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के घर हुआ जो इन्हें लोक – लाज के भय के कारण लहरतारा नामक तालाब पर फेक गई | जहाँ से उठाकर नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपति ने इनका पालन-पोषण किया | कबीर जी ने विधिवत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की | इनके गुरु रामानंद जी थे | कबीर जी की पत्नी का नाम लोई था तथा उनका एक पुत्र तथा एक पुत्री थी | पुत्र का नाम कमाल तथा पुत्री का नाम कमाली था | इनकी मृत्यु मगहर नामक स्थान पर सन् 1495 में हुई थी |

रचनाएं– कबीर जी ने साखी ,सबद और रमैनी की रचना की थी यह सभी कबीर ग्रंथावली में संग्रहित है | कबीर पंथियों के अनुसार ‘ बीजक ‘ ही कबीर की रचनाओं का प्रामाणिक संग्रह है | कबीर जी की कुछ रचनाएँ ‘ गुरु ग्रंथ साहब ‘ में भी संकलित हैं | कबीर जी की भाषा में अरबी, फ़ारसी, अवधी , ब्रज, राजस्थानी , पंजाबी जैसी अनेक भाषाओं के शब्दों का मिश्रण है । इसलिए इनकी भाषा को सधुक्कड़ी पंचमेल खिचड़ी कहा जाता है ।

ऐसी बाँणी बोलिए मन का आपा खोई।
अपना तन सीतल करै औरन कौं सुख होई।।

प्रसंग : प्रस्तुत दोहे में कबीर दास ने वाणी को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बताया है।

भावार्थ :  कबीर जी ने अपने दोहे में कहा है कि हमें ऐसी मधुर अर्थात मीठी वाणी बोलनी चाहिए , जिससे हमारे मन का अहंकार समाप्त हो जाए और हमारे तन को शीतलता का अनुभव हो और दूसरे लोगों को भी सुख की अनुभूति हो सके |

कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटि
– घटि राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥

प्रसंग : प्रस्तुत दोहे में कबीर दास जी ने लोगों को कस्तूरी हिरण की तरह ही ईश्वर प्राप्ति के लिए भटकते हुए बताया है

भावार्थ : जिस प्रकार हिरण की नाभि में कस्तूरी रहती है, परन्तु हिरण इस बात से अनजान उसकी खुशबू के कारण उसे पूरे जंगल में इधर-उधर ढूंढ़ता रहता है। ठीक इसी प्रकार ईश्वर को प्राप्त करने के लिए हम उन्हें मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा में ढूंढ़ते हैं। जबकि ईश्वर तो स्वयं कण-कण में बसे हुए हैं, उन्हें कहीं ढूंढ़ने की ज़रूरत नहीं। बस ज़रूरत है, तो खुद को पहचानने की।

जब मै था तब हरि नहिं , अब हरि हैं मैं नाहिं |
सब अंधियारा मिटि गया ,जब दीपक देख्या माहिं ||

प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में कबीर दास जी ने अहंकार का त्याग करके प्रभु की प्राप्ति होती है |

व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार की भावना थी तब तक परमात्मा नहीं थे और जब मन में परमात्मा का निवास हो गया तो अहंकार दूर हो गया | जब गुरु ने मुझे ज्ञान रूपी दीपक प्रदान किया तो विषय वासनाओं का सारा अंधकार मिट गया अर्थात् गुरु ज्ञान के प्रकाश से मनुष्य के भीतर का अहंकार मिट जाता है तथा हृदय में परमात्मा का वास हो जाता है |

सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै।।

प्रसंग : प्रस्तुत दोहे में कबीर दास जी ने समाज के ऊपर व्यंग्य किया है।

भावार्थ :  कबीरदास जी कहते हैं कि सारे संसार के लोग खाते है और सोते हैं उन्हें किसी बात की चिंता नहीं है वह सिर्फ खाने और सोने में ही खुश रहते हैं जबकि सच्ची ख़ुशी तो तब प्राप्त होती है, जब आप प्रभु की आराधना में लीन हो जाते हो। परन्तु भक्ति का मार्ग इतना आसान नहीं है, इसी वजह से संत कबीर को जागना एवं रोना पड़ता है।

बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई।
राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।।

प्रसंग : प्रस्तुत दोहे में कबीर दास जी ने प्रभु वियोग का वर्णन किया है |

भावार्थ :  कबीरदास जी कहते हैं साँप से डसे व्यक्ति की पीड़ा किसी मंत्र या दवा से ठीक नहीं हो सकती, ठीक उसी प्रकार, अपने प्रभु से बिछडा हुआ कोई भक्त जी नहीं सकता। अपने प्रभु से बिछड़ जाने पर वो जीवित रह भी जाते हैं, तो अपने प्रभु की याद में वो पागल हो जाते हैं।

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥

प्रसंग : प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी ने निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने पास रखने की सलाह देते हैं ताकि स्वभाव में सकारात्मक परिवर्तन आ सके।

भावार्थ : कबीरदास जी कहते हैं जो व्यक्ति हमारी निंदा करते हैं, उनसे कभी दूर नहीं भागना चाहिए, बल्कि हमें हमेशा उनके समीप रहना चाहिए। , हो सके तो अपने आँगन में ही उनके लिए घर बनवा लेना चाहिए जिससे हम रोज उनसे अपनी बुराईयों के बारे में जान सकें और अपनी गलतियाँ दोबारा दोहराने से बच सकें। इस प्रकार हम बिना साबुन और पानी के ही खुद को निर्मल बना सकते हैं।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥

प्रसंग : प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी ने इसमें कबीर जी पुस्तक ज्ञान को महत्त्व न देकर ईश्वर – प्रेम को महत्त्व देते हैं।

भावार्थ :  कबीरदास जी कहते हैं अनुसार सिर्फ़ मोटी-मोटी किताबों को पढ़कर किताबी ज्ञान प्राप्त कर लेने से भी कोई पंडित नहीं बन सकता। जबकि ईश्वर-भक्ति का एक अक्षर पढ़ कर भी लोग पंडित बन जाते हैं। अर्थात किताबी ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान भी होना आवश्यक है, नहीं तो कोई व्यक्ति ज्ञानी नहीं बन सकता।

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥

प्रसंग : प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी ने मोह – माया रूपी घर को जला कर अर्थात त्याग कर ज्ञान को प्राप्त करने की बात करते हैं

भावार्थ :  कबीरदास जी कहते हैं सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए, हमें अपनी मोह-माया का त्याग करना होगा। तभी हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं। कबीर के अनुसार, उन्होंने खुद ही अपने मोह-माया रूपी घर को ज्ञान रूपी मशाल से जलाया है। अगर कोई उनके साथ भक्ति की राह पर चलना चाहता है, तो कबीर अपनी इस मशाल से उसका घर भी रौशन करेंगे अर्थात अपने ज्ञान से उसे मोह-माया के बंधन से मुक्त करेंगे।