मन के हारे हार है मन के जीते जीत
किसी देश में वीरसिंह नाम का एक राजा था | वह बहुत वीर और प्रजा का हित चाहने वाला था | उसकी प्रजा भी उससे बहुत प्यार करती थी | एक बार किसी बात से नाराज होकर उसके पड़ोसी राजा ने उस पर आक्रमण कर दिया | राजा वीरसिंह अपनी सेना के साथ बहुत वीरता से लड़ा परंतु भाग्य ने उसका साथ न दिया | युद्ध में की पराजय हुई | उसके बहुत से सैनिक मारे गए | किसी प्रकार शत्रुओं से बचता बचाता व एक जंगल में जा पहुँचा , गुफा में रहने लगा गुफा में रहते – रहते उसे अपने परिवार व देश की बहुत याद आती थी | वह किसी तरह अपना खोया हुआ राज्य पुनः पाना चाहता था , परंतु उसे कोई उपाय नहीं आ रहा था | वह मन से हार मान कर बैठ गया था | एक दिन वह गुफा में बैठ| कुछ सोच रहा था तभी उसकी दृष्टि एक मकड़ी पर पड़ी | वह दीवार पर चढ़ने का प्रयास कर रही थी | राजा ने देखा मकड़ी ऊँचाई पर चढ़ती और फिसलकर नीचे गिर पड़ती | मकड़ी ने अनेक बार प्रयत्न किए | हर बार मकड़ी जब नीचे गिर जाती तो वीरसिंह को उस पर दया आ जाती | वह सोचने लगा कि बहुत हो चुका अब शायद मकड़ी की हिम्मत ने जवाब दे दिया है | अब वह दीवार पर चढ़ने की कोशिश नहीं करेगी पर वह यह देखकर हैरान रह गया कि मकड़ी ने फिर से हिम्मत जुटाई और इस बार दीवार पर चढ़ने में सफल हो गई यह देखकर वीरसिंह को सुखद आश्चर्य हुआ और इस घटना से उस पर गहरा प्रभाव पड़ा | उसका खोया हुआ विश्वास फिर से जाग उठा उसने सोचा जब एक मकड़ी बार – बार गिरने पर भी कोशिश कर दीवार पर चढ़ सकती है, तो भला मैं अपने शत्रुओं को क्यों नहीं हरा सकता राजा वीरसिंह की आँखों में आशा की चमक आ गई उसने नए जोश एवं साहस के साथ अपनी सेना तैयार की और शत्रु पर आक्रमण किया शत्रु अचानक हुए इस हमले के लिए तैयार नहीं था | शत्रु की हार हुई और वीरसिंह को अपना राज फिर से मिल गया किसी ने ठीक ही कहा है ” मन के हारे हार है मन के जीते जीत,”
जैसी करनी वैसी भरनी
मनुष्य अपने कर्मों का फल प्राप्त करता है। अच्छे कर्म करने से अच्छा ही फल मिलता है और बुरा कर्म करने से बुरा फल मिलता है | तुलसीदास के शब्दों में- “जो जस करे सो तस फल चाखा।” निम्नांकित कहानी इस तथ्य का प्रमाण है-एक बार की बात है कि एक हाथी प्रतिदिन अपने महावत के साथ पानी पीने के लिए तालाब पर जाता था। मार्ग में एक दर्जी की दुकान आती थी। जब हाथी दर्जी की दुकान के सामने आता तो दर्जी उसे सदैव कुछ न कुछ खाने को देता। इससे हाथी बहुत प्रसन्न रहता था। एक दिन दर्जी किसी बात पर नाराज था। हाथी प्रतिदिन की भाति दर्जी की दुकान पर आया और कुछ पाने की इच्छा से उसने अपनी सूंड आगे बढ़ाई। दर्जी पहले ही जला-भुना बैठा था। उसने हाथी की सूंड पर सुई चुभो दी। इससे हाथी बहुत ही नाराज़ हुआ और सीधा तालाब पर पानी पीने गया। हाथी के मन में सुई चुभाने का बहुत ही गुस्सा था। उसने दर्ज़ी से बदला लेने की भावना से अपनी सूंड में कीचड़ वाला गन्दा पानी भर लिया। वह वापिस दर्ज़ी की दुकान पर आ गया। हाथी ने अपनी सूंड का सारा गन्दा पानी दर्ज़ी की दूकान के कपड़ो पर फेंक दिया। जिससे सारे कपडे गंदे हो गए। दर्ज़ी को अपनी करनी पर भी बहुत पछतावा हो रहा था। कि क्यों उसने क्रोध में आकर हाथी के साथ ऐसा व्यवहार किया। हाथी ने उसके लिए जैसी करनी वैसी, भरनी वाली कहावत सत्य सिद्ध कर दी।
आलस्य मनुष्य का महान शत्रु है
आलस्य मनुष्य का महान शत्रु है’ मनुष्य की सफलता और उन्नति का आधार होता है– परिश्रम। मनुष्य की असफलता और अवनति का प्रमुख आधारभूत कारण होता है-आलस्य। आलस्य करके हम समय नष्ट करते हैं और फिर समय हमें नष्ट करता है। इसलिए महात्मा गांधी जी ने कहा है – कि आलस्य भी एक प्रकार की हिंसा है, क्योंकि इसके द्वारा हम समय की हत्या करते हैं। हम स्वप्न देखना चाहते हैं, ऊँचा लक्ष्य पाना चाहते हैं, पर प्रयास करते समय उतना परिश्रम नहीं करते। आज के काम को कल पर टालते चले जाते हैं। यही आलस्य है। धीरे-धीरे यह आलस्य एक विकार की तरह हमारे शरीर में समा जाता है और हमें कर्म-हीन बनाता चला जाता है। इस प्रकार से आलस्य हमारे शरीर में रहने वाला हमारा गुप्त शत्रु है। संस्कृत में कहा गया है-“आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।” इस विषय को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं यहाँ पर एक मौलिक कहानी प्रस्तुत कर रही हूँ: – संदीप और प्रदीप नाम के दो भाई थे। दोनों ही स्कूल के होनहार छात्र थे। बड़ा भाई संदीप कक्षा चार का और छोटा भाई प्रदीप कक्षा एक का विद्यार्थी था। संदीप तीव्रबुद्धि छात्र था और प्रदीप मंदबुद्धि छात्र था। दोनों में एक अंतर और था। संदीप अधिक परिश्रम करने से कतराता था। वह पढ़ाई तब करता था, जब पढ़ना अति आवश्यक होता था, परंतु प्रदीप बहुत परिश्रमी था। वह नियमित रूप से प्रतिदिन उचित समय तक पढ़ता था। कक्षा पाँच तक दोनों का मार्ग दर्शन उनके माता-पिता ने किया ये उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार ही उन्हें समय देते थे। जब संदीप कक्षा छः में आया, तो उसके पिता को व्यवसाय के सिलसिले में कई महीनों के लिए बाहर जाना पड़ा और उनकी माँ को बीमार दादी की सेवा में जुट जाना पड़ा। माँ ने दोनों भाइयों को समझाया कि अब उन्हें अपनी पढ़ाई स्वयं ही सँभालनी है। अब छोटा भाई प्रदीप, जिसमें आलस्य बिल्कुल नहीं था, दिन-रात अपनी पढ़ाई में जुटा रहता था, पर बड़ा भाई संदीप ने आत्मविश्वासी होने के साथ-साथ आलसी भी था। उसने सोचा कि वह परीक्षा के दिनों में जल्दी से सब कुछ पढ़ लेगा। और कक्षा में अव्वल ही आएगा। पर ऐसा न हो सका। परीक्षा के दिनों में उसे ‘पीलिया’ हो गया और वह पढ़ न सका। अर्धवार्षिक परीक्षा उसने बीमारी का बहाना करके दी नहीं थी। अब वह बहुत रोया, गिड़गिड़ाया पर किसी ने उसकी एक न सुनी। वह कक्षा छह में अनुत्तीर्ण घोषित कर दिया गया, जबकि छोटा भाई प्रदीप बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ। संदीप ने सारी परिस्थितियों का आकलन करने के बाद अनुत्तीर्ण होने का कारण जानने की कोशिश की, तो उसे यही बात समझ में आई कि यह सब उसके आलस्य के कारण हुआ है। निःसंदेह-‘आलस्य मनुष्य का महान शत्रु है।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
एक गाँव में राम और रहीम नाम के दो बच्चे रहते थे। दोनों आपस में अच्छे दोस्त थे। वे एक ही मोहल्ले में रहते थे। एक साथ ही खेलते थे । एक दिन तेज बारिश के कारण बाग में कोई खेलने न जा सका। राम ने माँ से शिकायत की- “माँ बारिश को रोको इसके कारण मैं अपने मित्र रहीम के साथ खेल भी नहीं पा रहा हूँ।” राम की बात सुन माँ को लगा कि उनके बेटे में यह शैतानी उस मुसलमान बच्चे रहीम से ही आ रही है। उन्हें रहीम बिल्कुल पसंद नहीं था। कुछ दिनों बाद बगल के नगर में हिन्दुओं और मुसलमानों में दंगा हो गया। उसका प्रभाव इस गाँव पर भी पड़ा | दंगे के कारण स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि पुलिस ने लोगों को घरों से बाहर न निकलने की चेतावनी जारी कर दी। उस समय राम अपने मित्र रहीम के घर पढ़ने गया हुआ था। राम की माँ अपने बेटे को लेकर बहत चिन्तित हो गयी। राम के पिताजी ने माँ को समझाया किँ रहीम के माता-पिता बहुत भले लोग हैं, अतः चिन्ता मत करो। लेकिन माँ को रहीम के परिवार पर बिल्कुल भरोसा नहीं था। वे उन्हें मुसलमान होने की वजह से शक की निगाह से देखती थीं। परन्तु इस समय और कोई रास्ता भी नहीं था। वह दंगा खत्म होने का इंतजार करने लगी। रात को दंगा खत्म होते ही रहीम के माता-पिता राम को सही सलामत उसके घर छोड़ने आए। उन्हें देख सम की माँ को स्वयं की गलत सोच पर पछतावा होने लगा। एकाएक ही उनके मुँह से निकला – “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।”
सीख – धर्म के आधार पर भेदभाव करना गलत है। हमें सभी धर्मों का आदर करते हुए मिलजुलकर रहना चाहिए।
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान बन सकता है
एक बालक था| उसका नाम वरदराज था| प्राचीन काल में माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा- दीक्षा के लिए गुरु के आश्रम में भेज देते थे | वरदराज को भी उनके माता-पिता ने गुरु के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा| वरदराज मंदबुद्धि बालक था इसलिए उसे गुरु की शिक्षा याद नहीं रहती थी | मित्र उसे चिढ़ाते थे| वे कहते थे तुम तो जड़बुद्धि हो| तुम हमारे साथ पढ़ने मत बैठ , घर लौट जा और वहाँ कुछ काम-धंधा कर यहाँ तुम्हारा क्या काम घर पर रहेगा तो कम से कम अपने माता-पिता की कुछ सहायता करेगा | मित्रों के ताने सुनते -सुनते वरदराज को अपने ऊपर ग्लानि होती |परंतु वह कुछ कर नहीं पता | वह दो वर्षों तक आश्रम में रहा परंतु कुछ भी सीख नहीं पाया एक दिन गुरु जी ने उसे अपने पास एकांत में बुलाया और उससे कहा पुत्र वरदराज मैंने तुम्हें विद्या सिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी यह भाग्य की विडंबना ही है | कि तुम मेरे पास रहकर कुछ सीख नहीं पाए हो, अब तुम अपने घर लौट जाओ माता-पिता तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे गुरु जी की सलाह से वह अपने गाँव की ओर चल पड़ा आश्रम से लौटते समय उसकी आँखों में आँसू थे और मन बहुत भारी था सोच रहा था माता-पिता और गाँव के लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे उसे सबके ताने सुनने पड़ेंगे |रास्ते में उसे प्यास लगी वह पानी पीने एक कुएँ के पास गया वहाँ उसने देखा की रस्सियों के घिसने से कुएँ पर रस्सियों के निशान पड़ गए है| उसे आश्चर्य हुआ उसने सोचा कि जब कोमल रस्सी से लगातार घिसने से कठोर पत्थर पर निशान पड़ सकता है तो फिर मेरे जड़ मस्तिष्क पर विद्या के लगातार अभ्यास का प्रभाव क्यों नहीं पड़ सकता फिर क्या था वह दृढ़ निश्चय करके बिना पानी पिए ही गुरु के आश्रम में लौट आया वरदराज ने गुरु जी से कहा गुरु देव मुझे एक और अवसर दीजिए मैं विद्या सीखकर ही रहूँगा गुरु जी ने कहा ठीक है परंतु यह तुम्हारे लिए अंतिम अवसर होगा उसी दिन से उसने मित्रों के तानो की परवाह किये बगैर विद्या का अभ्यास शुरू कर दिया वह गुरु जी की कही बातों को ध्यान से सुनता उसका चिंतन करता और बार-बार दोहराता इस प्रकार कुछ ही समय में उसने सारी विद्याएँ सीख ली वरदराज में आए |इस परिवर्तन को देखकर गुरु जी तथा अन्य विद्यार्थी आश्चर्य चकित हो रहे थे | यह उसके दृढ़ निश्चय और लगातार अभ्यास का परिणाम था | यही बालक आगे चलकर संस्कृत का महान विद्वान बन गया उसकी गणना संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वानों में होने लगी | इस बालक ने सिद्ध कर दिया “करत करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान” अर्थात बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान बन सकता है |