कवि परिचय : रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन् 1388 और देहावसान सन् 1518में बनारस में ही हुआ, ऐसा माना जाता है। मध्ययुगीन साधकों में इनका विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रैदास भी संत कोटि के कवियों में गिने जाते हैं। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का ज़रा भी विश्वास न था। वह व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे।
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।।
अर्थ: प्रभु! मेरे मन में जो आपके नाम की रट लग गई है, वह कैसे छूट सकती है? अब मै आपका परम भक्त हो गया हूँ। जिस तरह चंदन के संपर्क में रहने से पानी में उसकी सुगंध फैल जाती है, उसी प्रकार मेरे तन मन में आपके प्रेम की सुगंध व्याप्त हो गई है। अगर आप आकाश में छाए काले बादल के समान हो, तो मैं जंगल में नाचने वाला मोर हूँ। जैसे बरसात में उमड़ते बादलों को देखकर मोर खुशी से नाचता है, उसी प्रकार मैं आपके दर्शन को पा कर खुशी से मुग्ध हो रहा हूँ। और जैसे चकोर पक्षी सदा चंद्रमा की ओर ताकता रहता है उसी भाँति मैं भी सदा आपके प्रेम को पाने के लिए तरसता रहता हूँ। हे प्रभु! अगर आप दीपक हो तो मैं उस दिए की बाती, जो सदा आपके प्रेम में जलता है। और प्रभु आप मोती हो तो मैं उसमें पिरोया हुआ धागा हूँ। आपका और मेरा मिलन सोने और सुहागे के मिलन के समान पवित्र है। जैसे सुहागे के संपर्क से सोना शुद्ध हो जाता है, उसी तरह मैं आपके संपर्क से शुद्ध हो जाता हूँ। हे प्रभु! आप स्वामी हो और मैं आपका दास हूँ।
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसाईआ मेटा माथै छत्रु धरै।।
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचउ ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै।।
नामदेव कबीरू तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै॥
अर्थ: हे प्रभु! आपके बिना कौन कृपा करने वाला है अर्थात कोई नहीं। आप गरीब तथा दीन-दुखियों पर दया करने वाले हैं। आप ही ऐसे कृपालु स्वामी हैं जो मुझ जैसे अछूत और नीच के माथे पर राजाओं जैसा छत्र रख दिया। आपने मुझे राजाओं जैसा सम्मान प्रदान किया है। मैं तो अभागा हूँ। मुझ पर आपकी असीम कृपा हुई है। हे स्वामी आपने मुझ जैसे नीच प्राणी को इतना उच्च सम्मान प्रदान किया है। आपकी दया से कबीर जैसे जुलाहे, त्रिलोचन जैसे सामान्य, सधना जैसे कसाई और सैन जैसे नाई संसार से तर गए। उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। हे संतों, सुनो! हरि जी सब कुछ काटने में समर्थ हैं। उनके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है।
प्रश्न – उत्तर
(क) पहले पद में भगवान और भक्त कि जिन-जिन चीजों से तुलना की गई है, उनका उल्लेख कीजिए।
उत्तर: पहले पद में भगवान और भक्त की तुलना निम्नलिखित चीजों से की गई है :-
चंदन-पानी, घन-वन-मोर, चन्द्र-चकोर, दीपक-बाती, मोती-धागा, सोना-सुहागा आदि।
(ख) पहले पद की प्रत्येक पंक्ति के अंत में तुकांत शब्दों के प्रयोग से नाद-सौंदर्य आ- गया है, जैसे :- पानी, समानी आदि। इस पद में से अन्य तुकांत शब्द छांटकर लिखिए।
उत्तर: तुकांत शब्द – मोरा-चकोरा, बाती-राती, धागा-सुहागा, दासा-रैदासा आदि शब्द पहले पद की प्रत्येक पंक्ति के अंत में तुकांत शब्द हैं।
(ग) पहले पद में कुछ शब्द अर्थ की दृष्टि से परस्पर संबद्ध हैं। ऐसे शब्दों को छांटकर लिखिए-
उदाहरण: दीपक बाती
घन बन | मोर |
सुहागा | सोना |
चंदन | पानी |
दासा | स्वामी |
(घ) दूसरे पद में कवि ने ‘ निवाजु’ किसे कहा है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: दूसरे पद में ‘गरीब निवाजु’ ईश्वर को कहा गया है, क्योंकि ईश्वर को ‘निवाजु’ कहने का कारण यह है, कि वे निम्न जाति के भक्तों को भी एक समान नजर से देखते हैं तथा समभाव स्थान देते हैं। वह गरीबों का उद्धार करते है तथा उन्हें भी सम्मान दिलाते हैं । वे सबके कष्ट हरते हैं तथा भवसागर से भी पार उतारते हैं।
(ड) दूसरे पद की ‘जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै’ इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: जाकि छोति जगत कउ लागै : इसका अर्थ है, जिसकी छूत संसार के लोगों को लगती हों , और ता पर तुहिं ढरै : इसका अर्थ है, कि उन पर सिर्फ तू ही दया दिखाता है। इस पंक्ति का अर्थ है जिन लोगों को समाज सम्मान की नज़र से नहीं देखता है और उनसे दूरी बनाए रखता है। परन्तु ईश्वर बिना किसी भेदभाव के उन पर दया दिखाते है और उनकी मदद भी करते हैं।
(च) ‘रैदास’ ने अपने स्वामी को किन-किन नामों से पुकारा है?
उत्तर: गुसईया, गरीब, निवाजु, लाल, गोबिंद, हरि, प्रभु आदि नामों से रैदास ने अपने स्वामी को पुकारा है।
(छ) निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रूप लिखिए:
मोरा, चंद, बाती, जोति, बरै, राती, छत्रु, धरै, छोति, तुहीं, गुसईआ
उत्तर:
प्रयुक्त रूप | प्रचलित रूप |
---|---|
मोरा | मोर |
चंद | चाँद |
बाती | बत्ती |
जोति | ज्योति |
बरै | जलै |
राती | रात्रि, रात |
छत्रु | छत्र, छाता |
धरै | धारण करे |
छोति | छूत |
तुहीं | तुम्हीं |
गुसईआ | गोसाईं। |
2. नीचे लिखी पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए:
(क) जाकी अंग-अंग बास समानी
उत्तर: इस पंक्ति का भाव यह है कि जैसे चंदन के साथ में रहने से पानी भी सुगंधित हो जाता है, ठीक उसी प्रकार एक भक्त भी ईश्वर के संपर्क में आकर सुगंधित हो जाता है।
(ख) जैसे चितवत चंद चकोरा
उत्तर: ‘इस पंक्ति का आश्य यह है कि जैसे चकोर पक्षी हमेशा चंद्रमा को और निहारता रहता है उसी प्रकार भक्त भी सदा ईश्वर का प्रेम पाने के लिए तैयार रहता है।
(ग) जाकी जोति बरै दिन राती
उत्तर: इस पंक्ति का आश्य यह है कि कवि अपने आप को दिए की बाती तथा ईश्वर को दीपक मानते हैं। ऐसा दीपक जो दिन-रात जलता रहता है, कभी भी नहीं भुझता।
(घ) ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै
उत्तर: इस पंक्ति का भाव यह है कि ईश्वर से बढ़कर इस संसार सभी लोगों को एक बराबर सम्मान देने वाला कोई नहीं है। समाज के निम्न वर्ग को उचित सम्मान देने वाला कोई नहीं है परंतु ईश्वर तो सबका है और वह किसी में भी भेदभाव नहीं करता तथा वह अछूतों को भी सम्मान से देखते हैं और उच्च पद पर आसीन करते हैं।
(ङ) नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै
उत्तर: इस पंक्ति का भाव यह है कि ईश्वर हर कार्य को करने में समर्थ हैं तथा ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे ईश्वर संपन्ना न कर पाए। वे नीच को भी ऊँचा बना सकते हैं। उनकी कृपा से निम्न जाति में जन्म लेने वाले लोगों को भी ऊंची जाति में जन्म लेने वाले लोगों सा उचित सम्मान मिल सकता है।
3. रैदास के इन पदों का केंद्रीय भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर: रैदास के पदों का केंद्रीय भाव निम्नलिखित है :-
पहला पद – रैदास के पहले पद का केंद्रीय भाव यह है कि वह प्रभू के अनन्य भक्त हैं तथा वह अपने प्रभु से इस प्रकार घुलमिल गए हैं कि उन्हें अपने प्रभु से अलग देखा ही नहीं जा सकता। यह उनके लिए बड़ा मुश्किल होगा।
दूसरा पद – रैदास के दूसरे पद का केंद्रीय भाव यह है कि उनके प्रभु सर्वगुण संपन्न तथा दयालु हैं। वह निम्न जाति तथा गरीबों के रखवाले हैं। वह निडर तथा अछूतों के उद्धारक भी है। वह निम्न जाति मे जन्म लेने वाले निम्न लोगों को भी ऊंची जाति के साथ सम्मान पाने वाला बना सकते हैं।