(क) है अँधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है?                                                                                           कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,                                                                                                  भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था।                                                                                                    स्वप्न ने अपने करों से, था जिसे रुचि से सँवारा,                                                                                                       स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था।                                                                                                                                         ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को,                                                                                           एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?                                                                                                   है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

व्याख्या – कवि मनुष्य को सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देता हुआ कहता है कि आप मानव जीवन के रास्ते पर अंधेरा छा जाए तो दिया जलाकर रास्ते में रोशनी करने की मनाही नहीं है। अगर मनुष्य की कल्पनाओं का मन्दिर ढह जाए, भावनाओं के हाथों से जिसमें झरोखों को बनाया गया था। अपने सपनों के हाथों से जिस मन्दिर को अपनी मर्जी से सजाया संवारा गया था। स्वर्ग के जैसे सुंदर रंगों और आनन्द से जो भरा गया था अगर ऐसा मन्दिर, ऐसा हार टूट जाए, ढ़ह जाए तो जितने साधन उपलब्ध हो अर्थात् ईंट, पत्थर, कंकड़ों से अगर शांति की कुटिया बनाने का भी प्रबंध हो है। जाए तो वह जीवन जीने के लिए काफी है। मनुष्य के पास जितने साधन हो वह उन्हीं साधनों का प्रयोग करके अपना छोटा सा घर बना ले और उसमें शांति से रहे तो यह सहारा भी उसे जीने के लिए पर्याप्त है। कहने का अभिप्राय यह है कि अपनी भावना और कल्पना के द्वारा मनुष्य बहुत कुछ प्राप्त करने की सोचता है अगर वह सब कुछ नहीं मिलता तो थोड़ा कुछ प्राप्त हो जाऐ पर उसके सहारे जीने की मनाही नहीं है। मनुष्य को उसी में संतुष्टि कर लेनी चाहिए। इसीलिए अगर रात अँधेरी हो तो दिया जलाने की मनाही किसी को नहीं होती।

(ख) बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील, नीलम                                                                                                      का बनाया था गया मधु-पात्र मनमोहक मनोरम                                                                                                  प्रथम उषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा                                                                                                     थी उसी में चमचमाती, नव घनों में चंचला सम ।                                                                                                वह अगर टूटा, मिलाकर हाथ दोनों की हथेली                                                                                                 एक निर्मल, स्त्रोत से, तृष्णा बुझाना कब मना है?                                                                                               है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

व्याख्या – कवि कहता है कि हे मनुष्य अगर नीला और सुन्दर आकाश रूपों तुम्हारे सपने बादलों रुपी आँसूओं से धुल कर मिट जाए। जो तुमने नीलम रूपी हीरे से अपने जीवन का मधु रुपी पात्र बनाया था जिसमें सुबह की पहली किरण की जैसी सुन्दर लाल मदिरा भरी हुई थी जो नए बादलों में बिजली के समय चमक रही हो। अगर तुम्हारी कल्पना व भावना का ऐसा सपने रूपी बर्तन टूट जाए तो अपने दोनों हाथों की हथेलियों से एक निर्मल स्रोत रूपी झरने के पानी से प्यास बुझाना मना नहीं है। कहने का भाव यह है कि अगर तुम्हें जीवन जीने के लिए बहुत साधन उपलब्ध नहीं होते अगर प्यास लगने पर तुम्हें मदिरा नहीं मिलता तो पानी से प्यास बुझाने की मनाही नहीं है। इसी प्रकार अगर रात अँधेरी हो तो दिए से रोशनी करने की मनाही नहीं है।

(ग) क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई,                                                                                      कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई                                                                                              आँख से मस्ती झलकती, बात से मस्ती टपकती,                                                                                                                                                थी हँसी ऐसी जिसे सुन, बादलों ने शर्म खाई।                                                                                                         वह गई तो ले गई, उल्लास के आधार माना,                                                                                                              पर अधिरता पर समय की, मुसकराना कब मना है?                                                                                        है अँधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है?

व्याख्या – कवि अपने अतीत को याद करता हुआ कहता है कि एक समय वह भी था जब कोई भी किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं थी। चिन्ता की कालिमा तो बहुत दूर की बात है उसकी परछाई भी जीवन में नहीं पड़ी थी। वह बचपन का समय भी बड़ी ही मस्ती वाला था जब आँखों में भी खुशियाँ थी और बातों में भी खुशियाँ ही खुशियाँ थी। उस समय तो हमारा हँसना भी ऐसा था जिसे सुन कर तो मानों बादल भी शर्मा जाए और बरस पड़े। जब वह समय बीत गया तो साथ ही सारी खुशियाँ, सारी मस्ती भी साथ ही ले गया। कवि मनुष्य को प्रेरणा देता हुआ कहता है कि ऐसा समय बीत गया तो क्या हुआ। समय तो अस्थिर है। वह कभी भी टिकता नहीं है। लेकिन हे मनुष्य समय की इस अस्थिरता पर हँसना या मुस्कुराना तो मना नहीं है। जैसे कि अँधेरी रात में दिया जगाना मना नहीं है। जितने साधन आपके पास हो उन्हीं साधनों से संतुष्टि करके अपने जीवन की कठिनाईयों को दूर करना चाहिए।

(घ) हाय वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,                                                                                           वैभवों से फेर आँखें, गान का वरदान माँगा ।                                                                                                           एक अंतर से ध्वनित हों, दूसरे में जो निरंतर,                                                                                                 भर दिया अंबर-अवनि को, के गीत गा-गा।                                                                                                    अंत उनका हो गया तो, मन बहलाने के लिए ही ,                                                                                                  ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?                                                                                             है अँधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है?

व्याख्या – कवि कहता है कि क्या समय भी था वह जब खुशी के गीत गुनगुनाते थे, ऐश्वर्यों की कोई चिन्ता नहीं थी। गीतों का वरदान माँगा जाता था। एक ध्वनि दूसरी ध्वनि में मिल जाती थी अर्थात् एक की खुशी दूसरे की खुशी बन गई थी। उस समय मस्ती के गीतों के द्वारा धरती और आकाश एक कर दिया जाता था। अगर उन का अन्त हो गया अर्थात् अच्छा समय अगर चला भी गया तो उन्हीं गीतों में से अधूरी सी पंक्ति गुनगुनाकर भी अपने मन को बहलाया जा सकता है। अँधेरी रात है तो दिया जलाकर रोशनी की जा सकती है।

(ङ) हाय वे साथी कि चुंबक-लौह से जो पास आए,                                                                                                 पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,                                                                                                        दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा से मिलकर                                                                                                         एक मीण और प्यारा, जिंदगी का गीत गाए।                                                                                                   वे गए तो सोचकर यह, लौटने वाले नहीं वे,                                                                                                               खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?                                                                                          अँधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है?

व्याख्या – कवि कहता है कि एक समय जिन्दगी में ऐसा भी आया था जब साथी-मित्र ऐसे पास आ गए थे जैसे लोहा चुम्बक के पास खिंचा चला आता है। वे इस प्रकार से पास आ गए थे। जैसे मन में उन्होंने गहरी जगह भी बना ली हो। वे दिन मस्ती में ऐसे कर गए जैसे जीवन की तारों पर नया स्वर नया गीत उभर कर आ गया हो। आज अगर वे दोस्त मित्र कहीं चले गए हैं, खो गए हैं और ऐसा लगे कि वे लौटने वाले नहीं है तो यह सोचकर अपने ही मन को अपना मित्र बनाने की मनाही नहीं है। अगर जीवन में कठनाईयाँ आ गई हैं तो इन कठिनाईयों में साहस रखना कभी मना नहीं है।

(च) क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,                                                                                            कुछ ना आया काम तेरा, शोर करना गुल मचाना,                                                                                             माना कि उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका                                                                                                                        किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझो होगा बताना                                                                                                         जो बसे हैं, वो उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से,                                                                                              पर किसी उजड़े हुए को, फिर बसाना कब मना है?                                                                                     है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

व्याख्या – कवि कहता है कि जीवन में एक समय था जब जीवन में सब कुछ उजड़-सा गया था। ऐसी स्थितियाँ पैदा हो गई जब प्यार का घर ही उजड़ गया था। तब मनुष्य जितना भी शोर-गुल कर ले कुछ भी में नहीं आता। प्रकृति की शक्तियों के सामने किसी का कोई जोर नहीं चलता परन्तु हे निर्णय के प्रतिनिधि मनुष्य तू सब कुछ कर सकता है तुझे यह बात पता है कि यह प्रकृति का नियम है कि जो बसते हैं वे उजड़ते ही हैं परन्तु किसी उजड़े हुए को फिर से भी बसाया जा सकता है। अँधेरी रात हो तो दिया जलाकर रोशनी की जा सकती है।

अवतरणों पर आधारित प्रश्नोत्तर

1. क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई, कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई आँख से मस्ती झलकती, बात से मस्ती टपकती, थी हँसी ऐसी जिसे सुन, बादलों ने शर्म खाई। वह गई तो ले गई, उल्लास के आधार माना, पर अधिरता पर समय की मुसकराना कब मना है ? है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

(i) प्रस्तुत कविता का मूल स्वर आशावादी है – कैसे ?

उत्तर – प्रस्तुत कविता का मूल स्वर आशावादी है। इसमें बताया गया है कि हमें जीवन के अवांछित प्रसंगों या घटनाओं से हारकर निराश नहीं होना चाहिए।

(ii) कवि ने अँधेरी रात का संदर्भ किस आशय से उठाया है ?

उत्तर – कवि हरिवंशराय बच्चन ने अँधेरी रात का प्रसंग दीपक की आशा और उपयोगिता को उजागर करने के लिए उठाया है। जिस प्रकार अँधेरी रात में दीपक की लौ हमें सहारा देती है उसी प्रकार हमारे जीवन में अँधकार की स्थितियों में आशा का दीपक हमें मार्ग दिखाता है |

(iii) कवि का परिवर्तन के संबंध में क्या विचार है?

उत्तर – कवि का विचार है कि हमें परिवर्तन से कभी भी नहीं घबराना चाहिए। परिवर्तन या आकस्मिक अवांछित घटना से विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। हमें धैर्य नहीं खोना चाहिए। आत्म विश्वास तथा आशा हमारे जीवन के सुदृढ़ संवल हैं। इन्हें कभी भी त्यागना नहीं चाहिए।

(iv) प्रस्तुत काव्यांश का मूल भाव क्या है ?

उत्तर – प्रस्तुत काव्यांश का मूल आधार आशा और विश्वास है। इसका भाव यह है कि कल्पनाओं का संसार छिन्न-भिन्न हो जाने पर, सपने टूट जाने पर निराश या हताश होना ठीक नहीं। व्यक्ति को चाहिए कि वह आशावादी बना रहे और पुनः सृजन में जुट जाए।

2.क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना, कुछ ना आया काम तेरा शोर करना गुल मचाना माना कि उन शक्तियों के साथ चलता जोर किसका किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना जो बसे हैं वो उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है? है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

(i) प्यार का आशियाना किस प्रकार उजड़ गया ? कवि और कविता के प्रसंग में समझाइए।

उत्तर – प्यार का आशियाना समय की तेज़ आँधी ने ध्वस्त कर डाला था। ऐसा माना जाता है कि यह कविता कवि हरिवंशराय बच्चन ने अपनी पहली पत्नी के देहांत के बाद लिखी थी।

(ii) शोर करना गुल मचाना’ क्यों काम न आया ?

उत्तर – शोर मचाने से प्रकृति का चक्र नहीं बदलता। कवि इसी बात को अटल सत्य की तरह समझाना चाहते हैं। जीवन में विपरीत प्रसंग व घटनाएँ आती रहती हैं। इन्हें शोर मचाकर या निराश होकर नहीं लेना चाहिए। आशा व निर्माण जीवन के अटल पहलू व उपकरण हैं।

(iii) प्रकृति का जड़ नियम क्या है ?

उत्तर – कवि ने संकेत दिया है कि निर्माण तथा ध्वंस प्रकृति का नियम है। इसे प्रकृति का जड़ नियम कहा गया है। जीवन में सुख व दुःख भी इसी ओर संकेत देते हैं।

(iv) कविता का मूल प्रतिपाद्य लिखिए।

उत्तर – प्रस्तुत कविता का मूल प्रतिपाद्य आशावाद है। यह एक सकारात्मक व निर्माणात्मक प्रेरणा गीत है। इसमें कवि ने हमें समझाया है कि मनुष्य के जीवन में सुख और दुःख आते रहते हैं। यह प्रकृति का एक अटल तथा जड़ नियम है। अँधेरी रात और दीपक का प्रसंग भी इसी दृष्टि से उठाया गया है। सारी प्रकृति हमें आशावाद की प्रेरणा देती है क्योंकि उसमें निर्माण, परिवर्तन, ध्वंस तथा पुनर्निर्माण की प्रक्रिया छिपी हुई है।