Unknown Fact About Sumitranandan Pant - सुमित्रानंदन पंत ऐसे बने महान कवि,  जानिए उनके जीवन की खास बातें | Patrika News

जीवन परिचय – प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्म सन् 1900 में अल्मोड़ा के निकट कौसानी ग्राम में हुआ था |इनके पिता का नाम श्री गंगादत्त पन्त तथा माता सरस्वती देवी थी | इनका बचपन का नाम गोसाईं दत्त था बाद में इन्होंने अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया | पन्त जी स्वयं स्वीकार करते हैं कि कविता करने की प्रेरणा उन्हें प्रकृति से मिली | इन्होंने संस्कृत हिंदी बांग्ला और अंग्रेजी का भी अध्ययन किया | 28 दिसंबर 1977 को उनका देहावसान हो गया |

रचनाएँ वीणा ,पल्लव, ग्रंथि ,गुंजन, युगांत, युगवाणी, उत्तरा, चिदंबरा, लोकायतन, युगपथ , इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं |

1- मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे,
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और फूल – फलकर , मैं मोटा सेठ बनूँगा |
पर बजरं धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने न एक ही पैसा उगला,
सपने जाने कहाँ मिटे , सब धूल हो गए ,
मै हताश हो बाट जोहता रहा विनों तक ,
बाल कल्पना के अपलक पाँवड़े बिछाकर ,
मै अबोध था ,मैंन गलत बीज बोए थे |

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने धरती की ऊपजाऊ शक्ति के बारे में बताया है कि जिस प्रकार धरती में जो बोया जाए वही प्राप्त होता है उसी प्रकार हम जो कर्म करते हैं हमें वैसा ही फल मिलता है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि मैंने बचपन में छिपकर धरती में कुछ पैसे बो दिए थे, यह सोचकर कि इससे पैसों के पेड़ उग आऐंगे और रुपयों, पैसों से भरी फसलें खनकेंगी और मैं धनवान् सेठ बन जाऊँगा परन्तु बंजर धरती में एक भी बीज़ नहीं फूटा जो सपने मैंने देखे थे वह सब मिट्टी हो गए और मैं परेशान होकर कई दिनों तक प्रतीक्षा करता रहा कि अब पैसों के पेड़ उगेगें कि अब! बचपन की कल्पना में मैं अपने पलकों रूपी पाँव बिछाकर, अनजान बालक यह नहीं जानता था कि मैंने गलत बीज बोए हैं|

2. ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था।
अर्धशती हहराती निकल गई है तब से
कितने ही मधु पतझर बीत गए अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई,
सी-सीकर हेमंत कँपे, तरु झरे, खिले वन,
और जब फिर से गाढ़ी ऊदी लालसा लिए
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि के मनोभावों का चित्रण किया गया है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि मैंने उन पैसों को बड़ी ममतामय भावना के साथ बोया था और लालसा के भाव से उसे सींचा था भाव उस पेड़ से पैसे प्राप्त करने के लालच में मैंने उसको रोपा था। तब से लगभग 50 वर्ष बीत गए हैं कितने ही बसंत और पतझड़ के मौसम बीत गए, कितनी ही गर्मी की ऋतु, सर्दी की ऋतु, सर्द बर्फीली सर्दी बीत गई। काँप-काँप कर सर्दी बीत गई, वर्षा ऋतु समाप्त हो गई, वृक्ष के पत्ते झड़ गए फिर से वन हरे-भरे हो गए भाव मौसम बदलते रहे, आते रहे, जाते रहे और जब भी काले बादल धरती पर बरसे तब भी मेरे मन से लालसा नहीं गई मैं उन पैसों के पेड़ों के उगने की लालसा को लेकर बैठा रहा। कि शायद अब पैसों के पेड़ उग जायेंगे भाव मनुष्य की लालसा, कभी समाप्त नहीं होती, वह निरन्तर बढ़ती ही रहती है।

3. मैंने कोतूहलवश, आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर,
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे,
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिए हों,
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी, याद जिसे रखता मन,
किंतु, एक दिन, जब मैं संध्या को आँगन में
टहल रहा था, तब सहसा मैंने जो देखा,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से।
देखा आँगन के कोने में कई नवागत
छोटी-छोटी छाता ताने खड़े हुए हैं।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि के जीवन की एक अन्य घटना का वर्णन मिलता है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि एक दिन मैंने उत्साह में आँगन के कोने में गीली मिट्टी को सहलाकर उसके नीचे सेम के कुछ बीज दबा दिए। तब मानों मैंने धरती के नीचे बहुमूल्य रत्नों को बाँध दिया हो भाव धरती ऊपजाऊ है वह बीज़ों के बदले आपको फल-फूल का भण्डार देती है। और बाद में मैं इस घटना को भूल गया कि मैंने धरती के नीचे कुछ बोया है। और बात भी ऐसी नहीं थी कि उसे मैं याद रखता। परन्तु एक दिन जब शाम को मैं आँगन में टहल रहा था, तो अचानक मैंने देखा और मैं हैरानी एवं खुशी से भर गया कि आँगन के कोने में छोटे-छोटे नन्हें पौधे खड़े थे सिर पर छाता को ताने भाव मैंने जो धरती में बीज बोए थे आज उन्होंने पौधों का रूप

4. छाता कहूँ या विजय पताकाएँ जीवन की
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं, प्यारी –
जो भी हो, वे हरे-भरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे,
डिंब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से।
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता
सहसा मुझे स्मरण हो आया, कुछ दिन पहले,
बीज सेम के रोपे थे मैंने आँगन में
और उन्हीं से बौने पौधों की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मन के भावों एवं प्रकृति के सुन्दर रूप का वर्ण

व्याख्या – कवि कहता है कि उन सेम के बीजों से जब पौधे उग आए तो वह ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे छाता लिए खड़े हो या विजय की झंडियाँ उठाए खड़े हों। ऐसा लगता था मानों वह हथेलियाँ खोले थे, नन्हीं सी, प्यारी सी। ऐसा प्रतीत होता था जैसे वो आनन्द से भरे हो और पंख मारकर उड़ने को तैयार हो। वह ऐसे लगते थे जैसे चिड़िया के बच्चे अण्डे तोड़कर बाहर निकलते है उसी प्रकार वह हरे-भरे बाहर निकले सुन्दर प्रतीत हो रहे थे। पलभर मैं उनको एकटक (बिना पलके झपकाए) देखता रहा। अचानक मुझे याद आ गया कि कुछ दिन पहले तो मैंने सेम के बीज बोए थे यह तो पौधों की सेना उन्हीं बीजों से निकली है जो मेरी आँखों के सामने गर्व से खड़ी हैं जो नन्हें पैरों को पटक-पटक कर बढ़ती जा रही है भाव उन नन्हें पौधों को देखकर कवि के मन में बड़ी प्रसन्नता का भाव था।

5. तबसे उनको रहा देखता, धीरे-धीरे,
अनगिनती पत्तों से लद, भर गई झाड़ियाँ,
हरे-भरे टँग गए कई मखमली चँदोवे।
बेलें फैल गई बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का,
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,
मैं अवाक् रह गया वंश कैसे बढ़ता है।
छोटे तारों से छितरे, फूलों के छींटे,
झागों-से लिपटे लहरी श्यामल लतरों पर,
सुंदर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि मैं उन सेम के बीजों की लताओं को देखता रहा धीरे-धीरे वह अगिनत पत्तों से लद गए और झाड़ियों से भर गए और उस पर कई मखमली हरी-भरी शमियाने टँग गए मानो तम्बू ताना हो। तब ऑगन में लहराकर बल आकर कई बेलें फैलने लगी। वह बाड़े की फट्टियों की दीवार के सहारे से बढ़ने । ऐसा प्रतीत होता था मानो हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े हों। मैं हैरान होकर खड़ा लगी। सोचता रहा कि यह वंश कैसे बढ़ता जा रहा है मानो तारों से छितरे और फूलों के छींटे हों वह श्याम रंग की लताएँ निरन्तर लहरों की तरह बढ़ती जा रही थी सुन्दर लग रही श्रीमानों अमावस के आकाश में वह मोतियों के समान चमक रही हो भाव प्रकृति किस प्रकार विकसित एवं पलवित होती है किस प्रकार सुन्दरता को ग्रहण करती है यह देखकर कवि आश्चर्यचकित था।

6. ओह समय पर उनमें कितनी फलियाँ टूटी,
कितनी सारी फलियाँ, कितनी सारी फलियाँ,
यह धरती कितना देती है, धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को,
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्त्व को,
बचपन में छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने प्रकृति के विकसित होने के रूप का वर्णन किया है कि धरती तो देने वाली है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि कुछ समय पर उसमें कई कलियाँ उग आई, कितनी सारी फलियाँ उस पर लगी तब कवि को महसूस हुआ कि धरती माता तो कितना देती है वह तो दाता है वह तो हम पुत्रों को देने वाली है मैं तो उसे समझ नहीं पाया था इसी कारण बचपन में लालसा में पड़कर लोभवश मैंने अपने स्वार्थ के कारण धरती में पैसे बो दिए थे कि पैसों के पेड़ उग आऐगें परन्तु मैं नहीं जानता था कि हम जैसा बोऐगें वैसा ही प्राप्त करेंगे।

7. रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं,
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं,
इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं,
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले,
मानवता की जीवन श्रम से हँसें दिशाएँ,
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने धरती की ऊपजाऊ शक्ति के माध्यम् से मानवता का संदेश दिया है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि यह धरती रत्नों को जन्म देने वाली है यह मैं अब समझ सका हूँ हमें इस धरती में समानता के दाने बोने होंगे, सच्ची क्षमता के. मानव की ममता के दाने बोने होंगे भाव जिस प्रकार हम धरती में जो बोते हैं हमें वही प्राप्त होता है उसी प्रकार यदि आप समानता, सामर्थ्य, ममता के भाव रखेगें तो वही भाव आपको भी प्राप्त होगे। जिससे सुनहरी फसलें उगेगीं। मानवता का प्रसार हो सके, चारों दिशाओं में प्रसन्नता का भाव हो। क्योंकि हम जो बोऐगें वही प्राप्त करेंगे यदि आप अच्छे भाव रखते हैं तो अच्छाई प्राप्त करेगें और बुराई के बदले बुराई प्राप्त करेगे जैसा करोगे वैसा भरोगे।

प्रश्न – उत्तर

प्रश्न – हम जैसा बोएँगे, वैसा ही पाएँगे – आ: धरती कितना देती है कविता के माध्यम से कवि ने यह संदेश क्यों दिया है?

उत्तर- कविता के माध्यम से कवि ने यह संदेश इसलिए दिया है ताकि आप लालसा के भाव को छोड़कर समानता, ममता, क्षमता के भाव को अपनाए। कवि बचपन में नासमझी में धरती में पैसे बो देता है ताकि पैसों के पेड़ उग आऐगें और कवि अमीर सेठ बन जाऐगा परन्तु धरती कुछ नहीं उगलती और कवि निराश हो जाता है तब एक दिन वह सेम के बीच धरती में बो देता है तो कुछ ही दिनों बाद उससे छोटे-छोटे पौधे और बाद में बेल पर ढेर सारी फलियाँ लग जाती हैं इस प्रकार हम जैसा बोते हैं वैसा ही प्राप्त करते हैं कवि ने लालच में पैसे बोए तो कुछ प्राप्त नहीं हुआ और नासमझी में बोएं सेम के बीज से फलियाँ प्राप्त हुई उसी प्रकार आप जैसा करते हैं वैसा ही प्राप्त करते हैं।

अवतरणों पर आधारित प्रश्नोत्तर

1. ” देखा आँगन के कोने में कई नवागत छोटी-छोटी छाता ताने खड़े हुए हैं।
छाता कहूँ या विजय पताकाएँ जीवन की या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं, प्यारी
– जो भी हो, वे हरे-भरे उल्लास से भरे पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे ”

(i) नवागत का क्या अर्थ है? कविता के संदर्भ में समझाइए।

उत्तर – नवागत का अर्थ उन अंकुरों से है जो कवि के लिए एक नया अनुभव था। उसने बचपन में धरती में पैसे बोए ताकि पैसों के पेड़ अंकुरित हो सकें। वह सपना व्यर्थ सिद्ध हुआ। अब उसने सेम के बीज बोए थे जो एक सही व सार्थक प्रयास था। इसी से नवागत अंकुर फूटे थे।

(ii) विजय पताकाएँ किसे कहा जा रहा है और क्यों ?

उत्तर – विजय पताकाएँ सेम के नन्हें-नन्हें पौधे हैं। कवि को लगता है कि सेम की अंकुरित पंक्ति वास्तव में विजय के ध्वज हैं। इनकी बेलों में बहुत-सी फलियाँ लगेंगी।

(iii) ‘पंख मारकर उड़ने को उत्सुक’ का क्या अर्थ है ?

उत्तर – कवि ने प्रस्तुत कविता में धरती के रूप को संकेतित किया है। इसमें यदि सार्थक वअनुकूल बीज बोया जाता है तो उसका प्रतिफल भी सार्थक होता है। पैसों के पेड़ों का सपना देखने वाले कवि को अब आकर अहसास हुआ कि बीज ग्रहण करके धरती कितना कुछ देती है। उसे सेम के अंकुर मोहित कर रहे हैं। मानो वे पंख मारकर उड़ने अर्थात् विकसित होने को उत्सुक हों।

(iv) कविता का मूल भाव लिखिए।

उत्तर –‘आ : धरती कितना देती है’ कविता में कवि अपने बचपन की एक घटना का स्मरण कर रहा है, जब उसने धरती में पैसे बो दिए थे और सोचा था कि पैसों के पेड़ उगेंगे और रुपयों की फसलें आने पर वह धनाढ्य बन जाएगा। कालांतर में उसने सेम के कुछ बीज धरती में दबा दिए थे जिसके परिणामस्वरूप सेम की बेल उगी और बेल पर बहुत-सी फलियाँ लगीं। कवि ने इस कविता के माध्यम से यह संदेश दिया है कि धरती रत्न प्रसविनी है। हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे।

2.देखा आँगन के कोने में कई नवागत छोटी-छोटी छाता ताने खड़े हुए हैं। छाता कहूँ या विजय पताकाएँ जीवन की या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी जो भी हो, वे हरे-भरे उल्लास से भरे पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे।

(i) नवागत का क्या अर्थ है ? कविता के संदर्भ में समझाइए।

उत्तर – नवागत का अर्थ उन अंकुरों से है जो कवि के लिए एक नया अनुभव था। उसने बचपन में धरती में पैसे बोए ताकि पैसों के पेड़ अंकुरित हो सकें। वह सपना व्यर्थ सिद्ध हुआ। अब उसने सेम के बीज बोए थे जो एक सही व सार्थक प्रयास था। इसी से नवागत अंकुर फूटे थे।

(ii) विजय पताकाएँ किसे कहा जा रहा है और क्यों ?

उत्तर – विजय पताकाएँ सेम के नन्हें-नन्हें पौधे हैं। कवि को लगता है कि सेम की अंकुरित पंक्ति वास्तव में विजय के ध्वज हैं। इनकी बेलों में बहुत-सी फलियाँ लगेंगी।

(iii) ‘पंख मारकर उड़ने को उत्सुक’ का क्या अर्थ है ?

उत्तर – कवि ने प्रस्तुत कविता में धरती के महान् व दातृ रूप को संकेतित किया है। इसमें यदि सार्थक व अनुकूल बीज बोया जाता है तो उसका प्रतिफल भी सार्थक होता है। पैसों के पेड़ों का सपना देखने वाले कवि को अब आकर अहसास हुआ कि बीज ग्रहण करके धरती कितना कुछ देती है। उसे सेम के अंकुर मोहित कर रहे हैं। मानो वे पंख मारकर उड़ने अर्थात् विकसित होने को उत्सुक हों।

(iv) कविता का मूल भाव लिखिए।

उत्तर – ‘आ धरती कितना देती है ‘ कविता में कवि अपने बचपन की एक घटना का स्मरण कर रहा है, जब उसने धरती में पैसे बो दिए थे और सोचा था कि पैसों के पेड़ उगेंगे और रुपयों की फसलें आने पर वह धनाढ्य बन जाएगा। कालांतर में उसने सेम के कुछ बीज धरती में दबा दिए थे जिसके परिणामस्वरूप सेम की बेल उगी और बेल पर बहुत-सी फलियाँ लगीं। कवि ने इस कविता के माध्यम से यह संदेश दिया है कि धरती रत्न प्रसविनी है। हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे।