1. इतना कुछ है भरा विभव का, कोष प्रकृति के भीतर,                                                                                   इच्छित सुख-भोग, सहज ही पा सकते नारी-नर ।                                                                                       सब हो सकते तुष्ट, एक-सा सब सुख पा सकते हैं,                                                                                                   चाहें तो, पल में धरती को स्वर्ग बना सकते हैं।                                                                                                                               छिपा दिए सब तत्व आवरण के नीचे ईश्वर ने,
संघर्षो से खोज निकाला उन्हें उद्मयी नर ने ।
ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है,
अपना सुख उसने अपने भुजबल से ही पाया है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि प्रकृति के भीतर अनेक ऐश्वर्य की वस्तुएँ भरी हुई हैं सभी नर-नारी अपनी इच्छा के अनुसार आसानी से सुख प्राप्त कर सकते हैं। सभी लोग तृप्त हो सकते है एवं एक समान सुख भी प्राप्त कर सकते हैं। वह अगर चाहे तो एक पल में ही इस धरती को स्वर्ग बना सकते है भाव प्रकृति के भीतर इतना ऐश्वर्य है कि प्रत्येक नर-नारी इच्छानुसार सुख प्राप्ति कर इस धरती को समृद्ध बना सकते हैं परमात्मा ने इस धरती की परत के नीचे सभी बहुमूल्य तत्वों को छिपा दिया है। परन्तु मेहनती मनुष्य ने अपनी मेहनत से उन बहुमूल्य तत्वों को खोज निकाला है मनुष्य ब्रह्मा से अपने भाग्य में कुछ लिखा कर नहीं लाता है बल्कि स्वयं का सुख वह अपनी बाजूओं के बल से ही प्राप्त करता है भाव परमात्मा ने मनुष्य को हर वस्तु इसी धरती पर प्रदान की है और मनुष्य अपनी मेहनत से उन बहुमूल्य वस्तुओं को प्राप्त करता है।

2. प्रकृति नहीं डर कर झुकती है, कभी भाग्य के बल से,                                                                            सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से, स्रमजल से ।                                                                                                        ब्रह्मा का अभिलेख पढ़ा करते निरुद्यमी प्राणी,                                                                                                         धोते वीर कुअंक भाल का बहा भ्रवों से पानी ।                                                                                   भाग्यवाद आवरण पाप का और शास्त्र शोषण का,                                                                                       जिससे रखा एक जन से भाग दूसरे जन का                                                                                                        पूछो किसी भाग्यवादी से, यदि विधि- अंक प्रबल है,                                                                                                           पद पर क्यों न स्वयं देती वसुधा निज रतन उगल है?

व्याख्या – कवि कहते हैं कि प्रकृति कभी भी भाग्य से डर कर झुकती नहीं है। वह हमेशा मेहनती मनुष्य की मेहनत के आगे ही हारती है भाव प्रकृति से बहुमूल्य वस्तुएँ, रत्न, वैभव सब मनुष्य अपनी मेहनत से प्राप्त करता है। ब्रह्मा द्वारा दिए गए भाग्य की बात केवल वही मनुष्य करते है जो मेहनत न करता हो यद्यपि मेहनती तथा वीर मनुष्य अपनी मेहनत के पसीने से अपने दुर्भाग्य को बदलने की क्षमता रखते हैं ।कवि कहता है कि जो लोग भाग्यवाद का सहारा लेते हैं वह अपने पाप पर परदा डालते हैं और दूसरों का भाग्य के नाम पर शोषण करते हैं भाग्यवाद पाप का परदा और शोषण का शास्त्र है। भाग्यवाद के माध्यम से एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का हिस्सा हड़प लेता है। किसी भाग्यवादी से जरा पूछो कि यदि भाग्य इतना बलशाली है तो फिर धरती स्वयं ही अपने बहुमूल्य रत्न बाहर क्यों नहीं उगल देती उसे मनुष्य अपनी मेहनत से क्यों प्राप्त करता है । मनुष्य जो भी प्राप्त करता है अपनी मेहनत से करता है।

                                                                                                                                                      3.उपजाता क्यों विभव प्रकृति को सींच-सींच वह जल से ?                                                                                           क्यों न उठा लेता निज संचित कोष भाग्य के बले से?                                                                                                                एक मनुज संचित करता है अर्थ पाप के बल से,                                                                                                       और भोगता उसे दूसरा भाग्यवाद के छल से।                                                                                                    नर-समाज का भाग्य एक है, वह श्रम, वह भुजबल है,                                                                                                                                                                                                                                                                              जिसके सम्मुक झुकी हुई पृथिवी, विनीत नभ-तल है ।                                                                                       जिसने श्रम-जल दिया उसे पीछे मन रह जाने दो,                                                                                               विजित प्रकृति से बसे पहले उसको सुख पाने दो।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि प्रकृति को सींच-सींच कर उसमें से धन-धान्य क्यों उपजाया जाता है यदि भाग्य से ही सब कुछ प्राप्त होता है तो फिर प्रकृति बिना साँचे इकट्ठा किया धन प्रदान क्यों नहीं कर देती। भाग्यवाद का विरोध करते कवि कहते हैं कि यह सब प्रकृति का वैभव मनुष्य अपने बल से प्राप्त करता है और सम्पन्न व्यक्ति छल-कपट के माध्यम से मेहनती मनुष्यों द्वारा अर्जित किया धन प्राप्त कर उसे भाग्यवाद का नाम दे देते हैं भाव प्रकृति कभी भी ऐश्वर्य, वैभव स्वयं प्रदान नहीं करती बल्कि मनुष्य अपनी मेहनत से प्रकृति के वैभव प्राप्त करता है और भाग्यवादी मनुष्य बिना मेहनत के छल-कपट से प्राप्त कर लेते हैं और उसका उपभोग करते हैं। कवि कहते हैं कि मनुष्य का यदि कोई भाग्य है तो वह उसकी मेहनत, परिश्रम एवं भुजाओं की शक्ति है। जिसके सामने सारी धरती, आकाश झुक जाता है जिस मनुष्य ने अपनी मेहनत के पसीने से सब प्राप्त किया उसको पीछे मत रहने दो। इस जीती गई प्रकृति का सुख सबसे पहले उसे ही भोगने दो भाव जो मनुष्य मेहनत करता है उसे -उसकी मेहनत का फल अवश्य मिलना चाहिए।

अवतरणों पर आधारित प्रश्नोत्तर

1.छिपा दिए सब तत्त्व आवरण के नीचे ईश्वर ने, संघर्षों से खोज निकाला उन्हें उमयी नर ने। ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है, अपना सुख उसने अपने भुजबल से ही पाया है।

(i) प्रथम पंक्ति का क्या अर्थ है ?

उत्तर – प्रथम पंक्ति का अर्थ है कि ईश्वर ने सभी तत्त्वों को आवरण के नीचे छिपा दिया है जिन्हें परिश्रमी तथा जुझारू मनुष्यों ने अपने परिश्रम से खोज निकाला है। कवि कहता है कि मनुष्य अपना भाग्य ब्रह्मा से लिखवाकर नहीं लाया है वरन् उसने जो कुछ भी पाया है, अपने परिश्रम से पाया है।

(ii) संघर्षों से किसे निकाला और कैसे ?

उत्तर – कवि का विचार है कि संघर्ष या कर्म में बड़ी शक्ति होती है। संघर्ष के विषय में कवि दिनकर मनुष्य को कर्मरत रहने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि इस संसार में प्रकृति के भीतर अनंत धन-संपत्ति एवं धन-धान्य छिपा है कि उससे सभी नर-नारी इच्छानुसार सुख का भोग कर सकते हैं। सबकी इच्छाएँ पूर्ण हो सकती हैं, सभी सब प्रकार के सुख पा सकते हैं और यदि वे चाहें तो इस धरती को स्वर्ग बना सकते हैं।

(iii) भाग्य के संदर्भ में क्या कहा गया है ?

उत्तर – कवि कहता है कि प्रकृति कभी भाग्य के बल से डरकर नहीं झुकती। वह तो सदा परिश्रम करने वालों से भयभीत रहती है अर्थात् जब उद्यमी मनुष्य पसीना बहाते हैं तो प्रकृति उनसे हार जाती है। केवल आलसी तथा परिश्रम से जी चुराने वाले व्यक्ति ही ब्रह्मा द्वारा लिखे गए भाग्य पर विश्वास करते हैं जबकि वीर तथा उद्यमी मनुष्य तो अपने परिश्रम के बल पर पसीना बहाकर अपने दुर्भाग्य को भी बदलने की क्षमता रखता है।

(iv) भाग्य और भुजबल से क्या कुछ पाया जा सकता है ?

उत्तर – कवि ने भाग्य की अपेक्षा भुजबल को महत्त्व देने की प्रेरणा दी है। उन्होंने भाग्यवादी लोगों पर व्यंग्य किए हैं। कवि कहता है कि भाग्य पर विश्वास करना किसी पाप से कम नहीं है तथा शोषण करने के हथियार जैसा है जिसके कारण एक व्यक्ति दूसरे के भाग को हड़प कर जाता है। कवि प्रश्न करता है कि किसी भाग्यवादी से जरा यह तो पूछो कि यदि भाग्य इतना ही प्रबल है तो भाग्य के कारण यह पृथ्वी बिना उद्यम किए रत्नों को क्यों नहीं उगल देती ? भुजबल के बिना तो पृथ्वी भी हमें कुछ नहीं देती। वास्तविकता तो यह है कि केवल निरुद्यमी प्राणी ही भाग्य की दुहाई देते रहते हैं।

2. भाग्यवाद आवरण पाप का और शस्त्र शोषण का,जिससे रखा एक जन से भाग दूसरे जन का पूछो किसी भाग्यवादी से यदि विधि-अंक प्रबल है, पद पर क्यों न स्वयं देती वसुधा निज रतन उगल है ?

(i) भाग्यवाद को हीन पक्ष क्यों बताया गया है ?

उत्तर – कवि ने प्रस्तुत कविता ‘उद्यमी नर’ में हमें प्रेरणा दी है कि हमें कभी भी भाग्य के सहारे नहीं रहना चाहिए। भाग्य के सहारे रहने वाला सदा कमजोर रहता है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि कुछ ऊँचे लोग हमें भाग्य का संदर्भ देकर लूटने की प्रक्रिया जारी रखते हैं।

(ii) भाग्यवादी लोग दूसरे को कैसे दबाते हैं ?

उत्तर – भाग्यवादी लोग भाग्य की दुहाई देकर अपने से कमज़ोर लोगों का शोषण करते हैं। इस प्रकार भाग्यवाद पाप और शोषण को बढ़ावा देता है। इसी बुरी नीति के सहारे वे दूसरों का भाग तथा अधिकार दबाते जाते हैं और कहते हैं- “तुम्हारे भाग्य में यही लिखा था।”

(iii) विधि-अंक को प्रबल क्यों नहीं माना जा रहा ?

उत्तर – कवि कहता है कि प्रकृति कभी भाग्य के बल से डरकर नहीं झुकती। वह तो सदा परिश्रम करने वालों से भयभीत रहती है अर्थात् जब उद्यमी मनुष्य पसीना बहाते हैं तो प्रकृति उनसे हार जाती है। केवल आलसी तथा परिश्रम से जी चुराने वाले व्यक्ति ही ब्रह्मा द्वारा लिखे गए भाग्य पर विश्वास करते हैं जबकि वीर तथा उद्यमी मनुष्य तो अपने परिश्रम के बल पर पसीना बहाकर अपने दुर्भाग्य को भी बदलने की क्षमता रखता है।

(iv) कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – कवि ने भाग्य की अपेक्षा भुजबल को महत्त्व देने की प्रेरणा दी है। उन्होंने भाग्यवादी लोगों पर व्यंग्य किए हैं। कवि कहता है कि भाग्य पर विश्वास करना किसी पाप से कम नहीं है तथा शोषण करने के हथियार जैसा है जिसके कारण एक व्यक्ति दूसरे के भाग को हड़प कर जाता है। कवि प्रश्न करता है कि किसी भाग्यवादी से जरा यह तो पूछो कि यदि भाग्य इतना ही प्रबल है तो भाग्य कारण यह पृथ्वी बिना उद्यम किए रत्नों को क्यों नहीं उगल देती ? भुजबल के बिना तो पृथ्वी भी हमें कुछ नहीं देती। वास्तविकता तो यह है कि केवल निरुद्यमी प्राणी ही भाग्य की दुहाई देते रहते हैं।