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1. दूलह श्री रघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।                                                                                गावति गीत सबै मिलि सुंदर बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाहीं।।                                                                 राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं।                                                                            यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारत नाहीं ।।

व्याख्या – तुलसीदास जी श्रीराम के दूल्हा तथा सीता के दुलहन के रूप का वर्णन कर रहे हैं। सुंदर राजमहल में श्रीराम दुल्हा और सीताजी दुलहन बनी हुई हैं। समस्त सुंदर स्त्रियाँ मिलकर गीत गा रही हैं और युवक ब्राह्मण लोग जुटकर वेद-पाठ कर रहे हैं। उस अवसर पर श्री जानकी जी हाथ के कंगन के नग में पड़ी हुई श्रीराम की परछाईं निहार रही हैं, इससे वे सारी सुधि भूल गई हैं अर्थात् उनका मन श्रीराम के रूप की शोभा में लीन हो गया है। उनके हाथ जहाँ-के तहाँ रुक गए हैं और वे एकटक श्रीराम के रूप-सौंदर्य को निहार रही हैं अर्थात् पलकें भी नहीं हिलाती हैं।

2. कागर कीर ज्यों भूषण-चीर सरीरु लस्यो तजि नीरू ज्यों काई।                                                                             मातु-पिता प्रिय लोग सबै सनमानी सुभायै सनेह सगाई।                                                                             संग सुभामिनि, भाइ भलो, दिन, द्वै जनु औध हुते पहुनाई।                                                                             राजिव लोचन रामु चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई।

व्याख्या – कवि तुलसीदास कहते हैं बनवास जाते समय श्रीराम ने अपने राजसी वस्त्र और आभूषण तोते के पंखों के समान त्याग दिए। जिस प्रकार तोता अपने पंखों को त्याग का सुन्दर रूप धारण करता है उसी तरह श्री राम का शरीर सादा वस्त्रों में सुशोभित हो रहा है। उनका शरीर उसी भाँति शोभा दे रहा है जैसे काई के हट जाने पर जल साफ और स्वच्छ प्रतीत होता है। कमल के समान नेत्रों वाले श्रीराम अपनी पत्नी सीता ओर अपने भाई लक्ष्मण को अपने साथ लेकर अयोध्या नगरी से ऐसे चले गए जैसे वे वहाँ दो दिन के ही मेहमान थे।

3. जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।                                                                                                               काको नाम पतित पावन जग केहि अति दीन पियारे|
कौने देव बराड़ बिरद हित, हठि-हठि अधम उधारे ।
खग, मृग, व्याध, पषान, विटप जड़, जवन-कवन सुर तारे। देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया-बिबस बिचारे। तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुनपौ हारे।।

व्याख्या – कवि श्रीराम से प्रार्थना करते हुए कहते हैं हे प्रभु! मैं आपके चरणों को छोड़कर कहाँ जाऊँ? इस संसार में पतितों का उद्धार करने वाला आपके सिवा और कौन है। आपका ही नाम पतित पावन है। आपकी तरह दीन-दुखी किसे अधिक प्यारे हैं। आज तक कौन देवता हुआ है जिन्होंने अपने यश और कीर्ति की रक्षा करने के लिए नीचों का उद्धार किया है। हे प्रभु आपकी तरह किस देवता ने पक्षी (जटायु), पशु (ऋक्ष और वानर इत्यादि), ब्याध (बाल्मीकि और अजामिल), पत्थर (गौतम की पत्नी अहल्या), जड़ वक्ष (यमालार्जुन) और यवनों का उद्धार किया है। हे नाथ ! देवता, दैत्य, मुनि नाग, मनुष्य आदि सभी मोह-माया के वश में है। जो स्वयं बँधा हुआ है वह दूसरों के बंधन को कैसे खोल सकता है। मैं आपका ही दास हूँ। आपके सिवा मैं किसी ओर के आगे नहीं हार सकता।

अवतरणों पर आधारित प्रश्नोत्तर

क)” देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया-बिबस विचारे। तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुनपौ हारे । ”

i) कवि और कविता का नाम लिखकर बताएँ कि कवि किस काल की किस धारा के कवि हैं ?

उत्तर – ‘तुलसीदास के पद’ है। कवि तुलसीदास भक्तिकालीन सगुण काव्यधारा के कवि हैं।

ii) कौन-कौन माया के वश में है ?

उत्तर – मनुष्य, देवता, ऋषि-मुनि, राक्षस, नाग आदि सभी माया के अधीन हैं।

iii) कवि किसके हाथ अपनापन हार गए और क्यों ?

उत्तर – कवि भगवान राम के हाथों अपनापन हार गए हैं। इसका कारण यह है कि प्रभु-राम ही अपने भक्तों का उद्धार करते हैं। इस नश्वर संसार में सभी जातियों प्रजातियों के जीव माया के वश में हैं। माया इन सभी को भ्रमित करती है। जो लोग प्रभु राम की शरण में जाकर समर्पण करते हैं, उनका माया कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती ।

iv) इस काव्यांश के आधार पर कवि की भक्ति भावना की समीक्षा कीजिए।

उत्तर – तुलसीदास के आराध्य देव प्रभु श्रीराम हैं। उनके अनुसार मनुष्य का अंतिम लक्ष्य प्रभु की शरण में जाना है। जो लोग सच्चे हृदय से राम की सेवा में लीन हो जाते हैं, वे इस भ्रामक संसार से मोक्ष प्राप्त कर जाते हैं।

ख)” राजिव लोचन रामु चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई।। “

(i) प्रस्तुत पंक्ति का प्रसंग स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – प्रस्तुत पंक्ति का संबंध उस प्रकरण से है, जब श्रीराम को वन जाने की आज्ञा मिलती है। वे अपने पिता की आज्ञा पाते ही वन की ओर निकल पड़ते हैं।

(ii) राम ने पिता का ‘राज’ क्यों छोड़ा ?

उत्तर – श्रीराम का उनके पिता ने राजतिलक करने का विचार करके घोषणा कर दी, तो भरत की माता कैकेयी ने विघ्न डाल दिया। उन्होंने राम के लिए वनवास तथा अपने पुत्र के लिए राज्यभिषेक माँग लिया। इसी प्रसंग में राम अपने पिता दशरथ की आज्ञा का पालन करते हुए राज छोड़कर वन की ओर चले जाते हैं।

(iii) बटाऊ की नाई’ का क्या अर्थ है ?

उत्तर – ‘ बटाऊ की नाईं ‘ कहने से कवि तुलसीदास ने श्रीराम के उच्च चरित्र का संकेत दिया है। उन्होंने पिता का राज उसी प्रकार निर्लिप्त भाव से छोड़ दिया जैसे कोई बटाऊ (यात्री) मार्ग में विश्राम के स्थल को निर्विकार भाव से छोड़ जाता है।

(iv) प्रस्तुत काव्यांश द्वारा कवि ने श्रीराम की किस विशेषता को महिमामंडित किया है ?

उत्तर – प्रस्तुत काव्यांश में कवि तुलसीदास ने प्रभु श्रीराम के निर्लिप्त स्वभाव का वर्णन किया है। वे उन्हें एक आज्ञाकारी पुत्र के साथ-साथ एक निर्विकार प्राणी के रूप में भी महिमामंडित करना चाहते हैं।