(क) अमर-धवल गिरि के शिरों पर                                                                                                                   बादल को घिरते देखा है                                                                                                                                                                          छोटे-छोटे मोती जैसे                                                                                                                                         उनके शीतल तुहिन कणों को                                                                                                                                                    मानसरोवर के उन स्वर्णिम                                                                                                                                  कमलों पर गिरते देखा है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि मैंने प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य को देखा है जब हिमालय पर बादल घिरते हैं तो वह अत्यधिक सुन्दर प्रतीत होते हैं। बादलों की छोटी छोटी ओस की बूंदें जब मानसरोवर में विकसित सोने के कमलों पर पड़ती हैं तो अत्यधिक सुन्दर प्रतीत होती है प्रकृति के इस अनुपम सौन्दर्य को कवि ने देखा है बादलों को हिमालय पर्वत पर घिरते कवि ने वर्णित किया है।

(ख) तुंग हिमालय के कंधों पर                                                                                                                    छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,                                                                                                                                    उनके श्यामल नील सलिल में                                                                                                                                                                         समतल देशों से आ-आकर                                                                                                                       पावस की उमस से आकुल                                                                                                                          तिक्त-मधुर विसतंतु खोजते                                                                                                                        हंसों को तिरते देखा है।                                                                                                                                         बादल को घिरते देखा है

व्याख्या – कवि कहते है कि बादलों के घिरते समय प्रकृति का रूप मनोरम होता है हिमालय के ऊँचे शिखर पर कई झीले फैली हुई है भाव वो ऐसी प्रतीत होती है मानो हिमालय पर्वत के कंधों पर कई बड़ी-छोटी झीलें बह रही हो तथा उसके श्याम रंग के एवं नीले पानी में मानों समतल देशों से आकर हंस कमल की नालों में तंतुओं को खोज रहे कवि ने झीलों में उन्हें तैरते देखा है। इस प्रकार बादलों को घिरते कवि ने देखा है।

(ग) ऋतु वसंत का सुप्रभात था                                                                                                                           मंद-मंद था अनिल बह रहा                                                                                                                             बालरुण की मृदु किरणें थीं                                                                                                                                 अगल-बगल स्वर्णिम शिखर थे                                                                                                                                           एक दूसरे से विरहित हो                                                                                                                                          अलग-अलग रहकर ही जिनको                                                                                                                           सारी रात बितानी होती,                                                                                                                                   निशा काल से चिर-अभिशापित                                                                                                                         बेबस उस चकवा-चकई का                                                                                                                             बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें                                                                                                                                                                         उस महान सरवर के तीरे                                                                                                                           शैवालों की हरी दरी पर                                                                                                                                                       प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।                                                                                                                                              बादल को घिरते देखा है

व्याख्या – कवि कहते है कि यह बसन्त ऋतु की सुबह थी, हवा धीरे-धीरे चल रही थी। सूर्य के प्रातः काल उदय होने पर उस बाल सूर्य की मीठी किरणें पड़ रही थी, जिस कारण आस-पास सब तरफ सोने के शिखर चमक रहे थे। उस समय चकवा चकवी, पक्षी जिनको रात को अलग होने का अभिशाप प्राप्त है वह रात होने के कारण रोने लगे भाव बादलों के घिरने पर उन्हें लगा मानों रात हो गई हो और उनके बिछुड़ने का समय आ गया हो तो वह रोने लगे परन्तु दिन के उजाले में कवि ने उन्हें सरोवर के किनार हरी-हरी घास पर प्रेम-क्रीड़ा करते देखा। इस प्रकार कवि ने बादलों को घिरते देखा।

(घ) दुर्गम बर्फानी घाटी में                                                                                                                                       शत-सहस्त्र फुट ऊँचाई पर                                                                                                                              अलख नाभि से उठने वाले                                                                                                                                                           निज के ही उन्मादक परिमल                                                                                                                                    के पीछे धावित हो-होकर                                                                                                                                                                       तरल तरुण कस्तूरी मृग को                                                                                                                        अपने पर चिढ़ते देखा है।                                                                                                                         बादल को घिरते देखा है

व्याख्या – कवि प्रकृति के मनोरम रूप का चित्रण करते कहते हैं कि मैंने हिमालय की बर्फ से ढकी घाटियों की हजारों सैकड़ों फुट ऊँचाई पर हिरण को उस सुगन्ध के पीछे भागते देखा है जो उसकी ही नाभि से आ रही होती है परन्तु वह पागल होकर उस सुगन्ध को ढूँढता रहता है और स्वयं ही खीजता है। भाव हिरण को कस्तूरी उसकी अपनी ही नाभि में होती है परन्तु इस बात से अनजान सुगन्ध के पीछे भागता फिरता है और फिर खीजता है इस सौन्दर्य को कवि ने देखा है।

(ङ) कहाँ गया धनपति कुबेर वह                                                                                                                                                  कहाँ गई उसकी वह अलका                                                                                                                                       नहीं ठिकाना कालिदास के                                                                                                                          व्योम-प्रवाही गंगाजल का                                                                                                                             ढूँढ़ा बहुत परंतु लगा क्या                                                                                                                           मेघदूत का पता कहीं पर,                                                                                                                                                                                                                                                     कौन बताए वह छायामय                                                                                                                                                            बरस पड़ा होगा न यहीं पर,                                                                                                                                        जाने दो, वह कवि-कल्पित था,                                                                                                                                                 मैंने तो भीषण जाड़ों में                                                                                                                                        नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,                                                                                                                      महामेघ को झंझानिल से                                                                                                                              गरज-गरज भिड़ते देखा है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि इसी हिमालय पर धन के देवता कुबेर का निवास था परन्तु आज न तो कुबेर का पता है और न ही कुबेर की राजधानी अलका का कुछ अता पता है। और यह भी कहा जाता था कि हिमालय पर्वत पर कालिदास के मेद्यदूत ने वर्षा की थी परन्तु वह अब दिखाई नहीं देता। क्या पता वह मेद्यदूत बरसा कि नहीं जाने दो, परन्तु कवि कहते हैं कि मैंने भीषण जाड़ों में भी कैलाश के आकाश को चूमने वाली ऊँची -ऊँची चोटियों को बादलों को आँधी-तूफान से गरज-गरजकर भिड़ते देखा है मैंने बादलों को घिरते देखा है भाव हिमालय की ऊँची चोटियों पर जब बादल गरजते हैं वह सौन्दर्य अनुपम है।

(च) शत शत निर्झर-निर्झरणी-कल                                                                                                                            मुखरित देवदारु कानन में,                                                                                                                                                      शोणित धवल भोज पत्रों से                                                                                                                  छाई हुई कुटी के भीतर,                                                                                                                                       रंग-बिरंगे और सुगंधित,                                                                                                                                                                                                                                                                                  फूलों से कुंतल को साजे,                                                                                                                             इंद्रनील की माला डाले                                                                                                                                                               शंख-सरीखे सुघढ़ गलों में,                                                                                                                                                                                   कानों में कुवलय लटकाए,                                                                                                                                        शतदल लाल कमल वेणी में,                                                                                                                                                           रजत-रचित मणि-खचित कलामय                                                                                                                                          पान पात्र द्राक्षासव पूरित                                                                                                                                                                              रखे सामने अपने-अपने                                                                                                                                  लोहित चंदन की त्रिपदी पर,                                                                                                                                 नरम निदाघ बाल-कस्तूरी                                                                                                                                   मृगछालों पर पलथी मारे                                                                                                                                                                                                                              मदिरारुण आँखों वाले उन                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  उन्मद किन्नर-किन्नरियों की                                                                                                                                                                 मृदुल मनोरम अँगुलियों को                                                                                                                                 वंशी पर फिरते देखा है।                                                                                                                             बादल को घिरते देखा है।

व्याख्या – कवि ने किन्नर प्रदेश के अनुपम प्रकृति सौन्दर्य का चित्रण करते कहा है कि स्वर्ग के गायन जैसा स्वर हिमालय पर्वत के वनों में सुनाई देता है जब झरनों का पानी कल-कल करता वन में बहता है और देवदारू के वनों में गुंजन होता है। इन श्वेत रंग के पत्तों से रंग बिरंगें फूलों से सजी कुटिया के बीच किन्नर एवं किन्नरिया प्रेम क्रीड़ा करती दिखाई देती है भाव ऐसा लगता है मानो स्वर आपस में खेल रहे हो। ऐसा लगता है मानो उन्होंने इन्द्रनील (कमल का फूल) की माला पहनी हो और गले में शंख डाले हो तथा कानों में कर्णफूल लटकाए हो। तथा लाल कमलों की माला कलाई में डाली हो। किन्नर जाति के लोगों का मदिरा पान का पात्र भी चाँदी का बना है वह चन्दन की तिरपाई पर मदिरा के पात्रों को रखती है तथा स्वयं मृग के बच्चों की छाल से बनाए आसन पर बैठ जाती है मदिरा पान के कारण उनके नेत्र लाल रंग के हो जाते है वह मस्त हो जाती है। और इस मस्ती में कवि ने उनकी अँगुलियों को बाँसुरी पर फिरते देखा है।

1.’बादल को घिरते देखा है’ कविता के प्रकृति सौन्दर्य पर प्रकाश डालें।

उत्तर – कविता में कवि ने प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य को प्रकट किया है। सम्पूर्ण कविता प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य स्पष्ट करती है हिमालय पर्वत पर जब काले बादल छरते हैं तो उसकी बूंदें पड़ती हुई मोती के समान प्रतीत होता है तब ऐसा प्रतीत होता है मानो वह बूंदे सोने के समान कमल पर पड़ रही हो प्रकृति के आलम्बन रूप का चित्रण कवि ने किया है चकवाचकवी जो रात में बिछुड़ जाते हैं बादलों के घिरने पर रात का आभास होने पर उनका वियोग होता है। हिमालय पर्वत पर बहते झरनों का रूप मनोरम है जिसके पानी में हंस खेलते हैं। बसन्त ऋतु में भी मंद-मंद हवा अत्यधिक सुहावनी लगती है। इस प्रकार कविता में प्रकृति के सौन्दर्य को प्रस्तुत किया गया है।

2.कवि ने मृग के दृश्य का वर्णन किस प्रकार किया है ?

उत्तर – कवि ने मृग के दृश्य को वर्णित करते कहा है कि हिमालय की बर्फीली चोटियों में कवि ने मृग को कस्तूरी की सुगन्ध के पीछे दौड़ते देखा है कस्तूरी मृग की। अपनी ही नाभि में विद्यमान होती है परन्तु मृग इस बात से अनजान उसकी सुगन्ध को प्राप्त करने के लिए जंगलों में घूमता फिरता है और फिर अपने ऊपर ही खोजता भी है। मृग के इसी अनुपम सौन्दर्य को कवि ने देखा है एवं उसका वर्णन भी किया है।

3.कविता में कवि ने बादलों के अनुपम सौन्दर्य को किस प्रकार व्यक्त किया?

उत्तर – कवि ने बादलों के सौन्दर्य का प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया है। बादलों के घिरने पर हिमालय पर्वत की अनुपम शोभा का चित्रण करते कवि ने कहा है कि बादलों की बूंदे जब हिमालय पर्वत की चोटियों पर पड़ती हैं तो वह मोतियों के समान प्रतीत होती है किसी ने हिमालय पर्वत

अवतरणों पर आधारित प्रश्नोत्तर

1.ऋतु वसंत का सुप्रभात था मंद-मंद था अनिल बह रहा बालारुण की मृदु किरणें थीं अगल-बगल स्वर्णिम शिखर मे एक-दूसरे से विरहित हो अलग-अलग रहकर ही जिनको सारी रात बितानी होती. शैवालों की हरी दूरी पर निशा काल से चिर- अभिशापित बेबस उस चकवा कई का बंद हुआ क्रंदन फिर उनमें उस महान सरवर के तौरे प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

(i) कवि और कविता का नाम लिखकर बताएँ कि कवि किस काल की किस धारा के कवि हैं ?

उत्तर – कवि का नाम नागार्जुन तथा कविता का नाम ‘बादल को घिरते देखा है। कवि नागार्जुन आधुनिक काल की जनवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं।

(ii) प्रस्तुत कविता का मूल आधार क्या है ?

उत्तर – प्रस्तुत कविता का मूलभाव प्राकृतिक चित्रण है। इसमें कवि ने चित्रात्मक शैली में बादलों के घिरने के वातावरण के साथ-साथ प्राकृतिक परिवर्तनों और उससे जुड़ी गतिविधियों की छटा का शब्दचित्र प्रस्तुत किया है।

(iii) कवि ने किस सुप्रभात का कैसा वर्णन किया है ?

उत्तर – कवि ने वसंत ऋतु के सुप्रभात का वर्णन किया है। इस समय मंद-मंद वायु बहती है। पर्वत की चोटियों पर बालरूपी सूर्य की किरणें पड़ रही होती हैं। यह छटा अत्यंत मनोरम दिखाई देती है जो किसी भी सहृदय का बरबस मन मोह लेती है।

(iv) बेबस चकवा-चकई का संदर्भ क्यों उठाया गया है ? कविता के प्रसंग में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – कवि ने चकवे और चकई को सुप्रभात के प्रसंग में स्मरण किया है। प्राय: माना जाता है कि यह पक्षी युगल रातभर एक-दूसरे से बिछुड़ा रहता है। संभवत: उसे यह कोई शाप मिला है। परंतु प्रभात आते हो उनका मिलन हो जाता है। कवि ने बताया है कि इस प्रभाव के आते ही उनका क्रंदन बंद हो जाता है और वे पुनः संयोग की अवस्था में पहुँच जाते हैं। अत: यह उनके लिए एक सुखद प्रभात का आगमन है।

2.कहाँ गया धनपति कुबेर वह कहाँ गई उसकी वह अलका नहीं ठिकाना कालिदास के ………….. मैंने तो भीषण जाड़ों में नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर महामेघ को झंझानिल से गरज-गरज भिड़ते देखा है।

(i) धनपति कुबेर को किस अर्थ में स्मरण किया गया है ?

उत्तर – ऐसा माना जाता है कि धन का देवता कुबेर हिमालय से संबंध रखता था वहाँ पर उसकी राजधानी भो जिसका नाम अलका था परंतु आज उसका कोई चिह्न दिखाई नहीं दे रहा

(ii) कालिदास और मेघदूत का प्रसंग क्यों छेड़ा गया है ?

उत्तर – संस्कृत के महान कवि कालिदास ने अपनी मेघदूत की रचना भी हिमालय की घाटियों में की थी। कवि हिमालय की छटा के प्रसंग में उस इतिहास तथा ऐतिहासिक काव्य को स्मरण कर रहा है।

(iii) मेघदूत के विषय में कवि ने क्या अनुमान लगाया है ?

उत्तर – कवि मेघदूत के विषय में अनुमान लगाता है कि वह अब दिखाई नहीं दे रहा ऐसा लगता है कि वह यहाँ कहीं पर बरस गया होगा अतः वह भी उसे कवि की कल्पना प्रतीत होता है।

(iv) कवि को हिमालय के कैलाश में अब क्या दिखाई दे रहा है उसकी क्या विशेषता है? स्पष्ट करें।

उत्तर – कवि नागार्जुन को वर्तमान से लगाव है। यह हिमालय के सौंदर्य से मोहित होकर बादलों के घिरने का प्रसंग छेड़ रहे हैं। भीषण जाड़ों में हिमालय के कैलाश के आकाश को चूमने वाली ऊँची-ऊँची चोटियों पर मेघों को आँधी तूफान से गरज गरजकर भिड़ते हुए देखा जा रहा है। अतः कवि नागार्जुन को बादलों का यही रूप वास्तविक व सार्थक सौंदर्य का प्रतीक लगता है।